Book Title: Yogakshema Sutra Author(s): Niranjana Jain Publisher: Jain Vishva BharatiPage 11
________________ लगाते हुए आप घर में रहकर भी एक शान्त, साधनाशील, ध्यान, मौन जप में लीन एक गृहस्थ योगी के रूप में रही । धर्म के संस्कार आप में जन्मजात ही थे । साधना की उच्च पराकाष्ठा को देखते हुए आपने विक्रम सम्वत् २०३१ भादवा बदी पंचमी को श्री पारमाथिंक शिक्षण संस्था में साधना हेतु प्रवेश लिया । अल्पभाषण, आहार संयम, दृष्टि संयम एवं गपशप की दुनिया से बेखबर आप साधना में लीन रही । श्री पा०शि०सं० के प्रथम यात्रा ग्रुप आसाम, बिहार, नेपाल हेतु आपका चयनित होना संस्था के जीवन में एक आदर्श पृष्ठभूमि तैयार करता है । धार्मिक व्यक्ति के मनोबल एवं निर्भयता स्पर्श से समागत घटना अघटित ही गुजर जाती है ऐसा ही आपके साथ हुआ" संस्था प्रांगण में अर्द्धरात्रि के समय तेज आंधी तूफान के बहाव में आई एक नाग जाति आपके पैर से लिपट गई, बंधन गहरा होने लगा तो मन में कुछ शंका हुई एवं 'ओऽम् भिक्षु' के जप को करते-करते उसी मुद्रा में आप थोड़ी सी उठी, उठते ही अपने आप नागजाति उतर कर लाइब्रेरी के पास कौने में फन उठाकर बैठ गई, फिर भी आप शान्त एवं सहज स्थिति में रही । यह बात आपके अभय होने की पुष्टि करती है ।" संस्था में आप अस्वस्थ रहीं, अस्वस्थता के बावजूद भी आप अपनी सहवर्तनी मुमुक्षु शान्ताजी, वर्तमान में समणी श्रो स्मितप्रज्ञाजी एवं सुप्रज्ञाजी के अनन्य आत्मीय सहयोग से संस्था - कालीन अध्ययन पूर्ण किया । किन्तु बीमारी ने आपके संस्थाकालीन जिन्दगी में इस तरह दस्तक दी कि आपको लगने लगा कि आपके कारण साधना रत बहनों के बीच व्यवधान हो रहा है, इसके साथ ही परिवार के लोगों का भी आग्रह था कि आप घर पर रहकर उपचार करायें। इन सब परिस्थितियों को देखते हुए आपने घर पर रहना मंजूर किया। घर में रहकर भी आप मितभाषिता, खाद्य-संयम, दूरदर्शिता एवं विनम्रता की प्रतिमूर्ति बनी रही और एक गृहस्थ साधिका का जीवन जीने लगी । नई-नई जानकारियां हासिल करना एवं उन्हें प्रायोगिक रूप देना आपकी अभिन्न रुचि है । आपकी ये ही विशाल विशेषतायें हर किसी के लिये स्वतः ही प्रेरणा बनती चली जाती है । आपकी निय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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