Book Title: World of Philosophy
Author(s): Christopher Key Chapple, Intaj Malek, Dilip Charan, Sunanda Shastri, Prashant Dave
Publisher: Shanti Prakashan
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की पूर्ति के लिए अत्यंत श्रम करना होता है । उन्हें विचार का अवसर ही नहीं
मिलता ।
जैन दर्शन समाज-व्यवस्था का सूत्र नहीं देता, काम और अर्थ का दिशा-निर्देश नहीं देता, जीवन की समग्रता का दर्शन नहीं देता । जैन दर्शन में मोक्ष की मीमांसा प्रधान है । मोक्षवादी दर्शन का मुख्य कार्य धर्म की मीमांसा करना होता है । इस संदर्भ में धर्म का अर्थ भी बदल जाता है । काम और अर्थ के संदर्भ में धर्म का अर्थ समाज व्यवस्था के संचालन का विधिविधान होता है । मोक्ष के संदर्भ में उसका अर्थ होता है चेतना का शोधन । महावीर ने जितने निर्देश दिए वे सब चेतना की शुद्धि के लिए दिए । उन निर्देशो से अर्थ और काम प्रभावित होते हैं ।
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नैतिकता व्यक्ति का अपना गुण है, इस अपेक्षा से वह वैयक्तिक है, किंतु वह दूसरे के प्रति होती है, इसलिए सामाजिक भी है। समाज की आचार संहिता देश-काल में भेद से भिन्न-भिन्न परिवर्तनशील और समाज की उपयोगिता के आधार पर निर्मित होती है । नैतिकता देश और काल की धारा में एक रुप, अपरिवर्तनशील और धर्म से प्रभावित होती है । धर्म और नैतिकता को शाश्वत सत्य की श्रेणी में रखा जा सकता है, समाज की आचार संहिता को उस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । वे दोनों व्यक्ति की आंतरिक अवस्था है । समाज की आचार संहिता समाज का बाहरी नियमन है । यह शुद्ध अर्थ में सामाजिक है । नैतिकता उद्गम में वैयक्तिक और व्यवहार में सामाजिक है । धर्म शुद्ध अर्थ में आत्मिक और व्यवहार में वैयक्तिक है ।
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अहिंसा का सर्वोच्च धार्मिक मूल्य है । उनका सूत्र है अहिंसा धर्म है, धर्म के लिए हिंसा नहीं की जा सकती । धर्म की रक्षा अहिंसा से होती है, धर्म की रक्षा के लिए हिंसा नहीं की जा सकती ।
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मनुष्य जाति एक है । जातीय भेदभाव, घृणा और छूआछूत ये हिंसा के तत्त्व है । अहिंसा धर्म में इनके लिए कोई अवकाश नहीं है ।
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महावीरने धर्म के तीन लक्षण बतलाए अहिंसा, संयम और तप । ये तीनों आत्मिक और वैयक्तिक है इनसे फलित होने वाला चरित्र नैतिक होता है । रागद्वेषमुक्त चेतना अहिंसा है । यह धर्म का आध्यात्मिक स्वरूप है । जीव की हिंसा नहीं करना, झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, परिग्रह नहीं रखना यह धर्म का नैतिक स्वरूप है । राग-द्वेष-मुक्त चेतना आत्मिक स्वरूप ही है । वह किसी दूसरे के प्रति नहीं और उसका संबंध किसी दूसरे से नहीं है । जीव की हिंसा नहीं करना यह दूसरों के प्रति आचरण है । इसलिए यह नैतिक है । नैतिक नियम धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप से ही फलित होता है । इसका उद्गम धर्म का आध्यात्मिक स्वरूप ही है । इसलिए यह धर्म से भिन्न नहीं हो सकता । धर्म अपने में और नैतिकता दूसरों के प्रति इन दोनों
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