Book Title: World of Philosophy
Author(s): Christopher Key Chapple, Intaj Malek, Dilip Charan, Sunanda Shastri, Prashant Dave
Publisher: Shanti Prakashan
View full book text
________________
(१) सुगन्ध का सम्बन्ध दिव्य घ्राणेन्द्रिय के साथ हो सकता है। यह बात सर्व इन्द्रियों के साथ जुड़ी हुई है।
(२) 'गन्ध' का अर्थ सम्बन्ध भी है - शिव दिव्य सम्बन्ध युक्त है। अर्थात् पराम्बा के साथ दिव्य सम्बन्ध के कारण वह 'शिव' और 'अमृतदाता' है। ये बात सौन्दर्यलहरी के प्रथम श्लोक 'शिवः शक्त्या युक्तः' में भी स्पष्ट है, शङ्कराचार्यने देव्यपराधक्षमापनस्तोत्र में 'भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्' कहकर भवानी के साथ शिव के दिव्यसम्बन्ध की बात कह दी
स्थूल पदार्थ की सुगन्ध नाशवंत है। कीर्ति, यश की सुगन्ध चिरंजीव है और आत्मज्ञान से प्राप्त या परमतत्त्व की अनुभूति और योग द्वारा अनुभूत सुगन्ध व दिव्यसुगन्ध शाश्वत हैं।
पुष्टिवर्धनम् - पुष्टि शरीरधनादिविषया वर्धयतीति पुष्टिवर्धनः । तादृशं त्र्यम्बकं यजामहे पूजयामः।
हमारे नम्र मत से पुष्टि तीन प्रकार की है। आधिभौतिक - धन, धान्य, संपत्ति की वृद्धि आधिदैविक - मानसिक शांति की वृद्धि, चिंताओं का नाश, भय समाप्त होना आध्यात्मिक पुष्टि - परमतत्त्व का चिंतन भगवद्गीता में भगवान 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' कहकर भक्त के पोषण की जिम्मेदारी लेते हैं।
'त्रिपुरातापिन्युपनिषत्' में लिखा है कि -
'यः सर्वान् लोकान् सृजति सर्वान् लोका स्तारयति यः सर्वान् लोकान् व्याप्नोति तस्मादुच्यते पुष्टिवर्धनमिति ।
पुष्ट धातु से ‘पुष्टि' शब्द बनता है, शिव पुष्टि की भी वृद्धि करते हैं। ___ पुष्टि का अर्थ वल्लभाचार्य को जो अर्थ अभिप्रेत है, वह भी हो सकता है। जीवात्मा को 'अमृत' तक ले जानेवाले भी परमात्मा ही है।
(३) उर्वारुकमिव - जिस तरह उर्वारुक फल बन्धन से स्वयं ही अलग हो कर गिर जाते है, अलग होने की पीडा भी नही होती। पका हुआ फल अपने आप अलग होता है। मौत भी साहजिक क्रिया हो जाय। पके हुए फल में रस पूर्णता को प्राप्त हुआ होता है। जीवन-रस की पूर्णता का अनुभव होते हुए ही उससे बिछड़ने का दुःख नही होता है।
बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय - 'त्रिपुरातापिन्युपनिषत्' अनुसार संलग्नत्वादुर्वारुकमिव मृत्योः संसारबन्धनात् संलग्नत्वाद् बद्धत्वान्मोक्षी भवति मुक्तो भवति । यहाँ 'बन्धनात् मुक्षीय' 'मृत्योः मुक्षीय' इस तरह भी अन्वय हो सकता है। जीवन या संसार से मुक्ति हो, इतना ही नहि, मृत्यु से भी मुक्ति होनी चाहिए। भगवद्गीता कहती है - जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च ।' बन्धन से मुक्ति के बाद, दूसरी बार बन्धन न मिले यह भी यहाँ सूचित है।
743