Book Title: World of Philosophy
Author(s): Christopher Key Chapple, Intaj Malek, Dilip Charan, Sunanda Shastri, Prashant Dave
Publisher: Shanti Prakashan
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आचरण एवं व्यवहार
श्री शुभकरण सुराणा व्यक्ति और समाज - ये दो वास्तविकताएँ है । मनुष्य समाज में प्रवेश करने के पूर्व व्यक्ति विशेष है । वे अपनी संपत्ति, अधिकार, जीवन की सुरक्षा की पूर्ति के लिए सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करते हैं ।
व्यक्ति में वैयक्तिकता और सामाजिकता दोनों के मूल तत्त्व सन्निहित होते हैं क्षमताओं का होना व्यक्ति की वैयक्तिकता है, उनका अभिव्यक्त होना व्यक्ति की सामाजिकता है । इसलिए व्यक्ति और समाज भिन्न-भिन्न है । व्यक्ति की वैयक्तिकता कभी खंडित नहीं होती । उसका कभी विनिमय नहीं होता । व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग बनकर भी व्यक्ति ही रहता है । व्यक्ति अपनी आकांक्षा, अपेक्षा और कर्म का विस्तार करता है, विनिमय . और परस्परता का संबंध स्थापित करता है । व्यक्ति की सीमा संवेदन है । एक व्यक्ति को प्रेम, हर्ष, भय और शोक का संवेदन होता है, वह नितांत वैयक्तिक है। उसका विनिमय नहीं होता। वह दूसरों को दिया नहीं जा सकता । विनिमय व्यक्ति और समाज के बीच का सेतु है । उसके इस ओर व्यक्ति है और उस तरफ समाज व्यक्ति का मूल आधार है संवेदन और समाज का मूल आधार है विनिमय ।
समाज सामाजिक संबंधो की एक पद्धति है, जिसके द्वारा हम जीते है। समाजशास्त्री ग्रीन के अनुसार 'समाज एक बड़ा समूह है जिससे हर व्यक्ति संबद्ध है ।'
समाज-व्यवस्था के आधारभूत तत्त्व दो हैं - काम और अर्थ । काम की संपूर्ति के लिए सामाजिक संबंधो का विस्तार होता है । अर्थ काम-संपूर्ति का साधन बनता है । धर्म (विधि-विधान)के द्वारा समाज की व्यवस्था का संचालन होता है ।
काम और धर्म का मूल 'अर्थ' है। इसलिए इस त्रिवर्ग में अर्थ ही प्रधान है । आधुनिक समाजवादी समाज-व्यवस्था में भी अर्थ की प्रधानता है। वह अर्थ पर ही आधारित है। अर्थाधारित समाज-व्यवस्था में व्यक्ति का स्वतंत्र मूल्य नहीं हो सकता व्यक्तिगत स्वतंत्रता नियंत्रित किए बिना समाजवादी व्यवस्था फलित नहीं हो सकती। व्यक्ति अपने संवेदनो को जितना मूल्य देता है, उतना दूसरों के संवेदनो को नहीं देता अप्रमाणिकता, अनैतिकता, शोषण और भ्रष्टाचार जैसी बुराइयां पनपती हैं ।
व्यक्तिवादी समाज-व्यवस्था में सामाजिक विषमता फलित होती है । उनमें कुछ लोग सम्पन्न होते हैं और जन-साधारण विपन्न रहता है। सम्पन्न लोग भोग-विलास में आसक्त रहते हैं । वे अपनी सुख-सुविधा की ही चिंता करते हैं, दूसरों के हितों की चिंता नहीं करते । उनकी इन्द्रियपरक आवश्यकताएं बढ़ जाती है । वे भोग से हटकर अन्य विषयों पर विचार के लिए समय ही नहीं निकाल पाते । विपन्न लोगों को इन्द्रियपरक आवश्यकताओं
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