Book Title: World of Philosophy
Author(s): Christopher Key Chapple, Intaj Malek, Dilip Charan, Sunanda Shastri, Prashant Dave
Publisher: Shanti Prakashan
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की भ्रान्ति के शिकार हुए हैं। अतएव कहा जा सकता है कि शुद्ध और सुदृढ़ चित्तभूमि पर कर्म की कर्मवत्ता का नैतिक प्रामाण्य भले ही स्वतः हो लेकिन यदि वह भ्रान्त है तो उसका अप्रामाण्य परतः ही सिद्ध होता है । यद्यपि इस प्रकार की भ्रान्तियाँ हमारी व्यक्तिगत चेतना अथवा सांस्कृतिक संस्कारों के इतने गहरे स्तर पर प्रविष्ट होते हैं कि उनका निराकरण कोई विरले ही बुद्ध पुरुष कर पाता है । व्यक्तिगत जीवन में कब हम अपनी उदारता प्रदर्शित करते हुए वास्तव में अपने अहंकार को संतुष्ट कर रहे होते हैं और कब परार्थ के आवरण में स्वार्थ को सिद्ध कर रहे होते हैं, यह निर्धान्त रुप से जाना पाना बड़ा ही दुष्कर होता है । गीता कर्म, अकर्म और विकर्म की विवेचना करते हुए भी 'कर्मणा गहनो गति' कह कर धर्माधर्म बोध की इसी दुष्करता का संकेत करती है ।
IV
भारतीय परम्परा में यत्र-तत्र जहाँ-कहीं भी कर्तव्याकर्त्तव्य के निर्णय हेतु सामान्यीकृत आधारों को सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है वहाँ अन्तत: कर्म की कर्मवत्ता को ही शुद्ध और सुदृढ़ करने के प्रयास दिखाई देते हैं । कर्म-चेतना की यह विशुद्धि भारतीय नैतिक चिन्तन के लिए आधारभूत और आदर्शोपम्य दोनों है। मनु ने धर्म का स्त्रोत बताते हुए कर्त्तव्याकर्त्तव्य के निर्णय के लिए श्रुति, स्मृति, सदाचार और 'स्वस्य च प्रियमात्मनः' नामक चतुर्विध आधारों को प्रस्तावित किया है । वस्तुत: ये चार प्रकार के प्रमाण हैं जिनकी सहायता से कोई व्यक्ति नैतिक निर्णय ले सकता है । परन्तु इनमें से चौथा प्रमाण पहले के तीन प्रमाणों से बिलकुल भिन्न प्रकार पहले तीन में हम सम्पादित हुए कर्मो की परीक्षित अर्थवत्ता के ऐतिहासिक अनुभवों को दृष्टान्त बनाकर हम उनके अनुकरण से अपने को प्रमाणित करते हैं । अतएव पहले के तीनों प्रमाणों को अनुकरणात्मक या फिर परमार्थात्मक कहा जा सकता है । परन्तु अन्तिम चौथे प्रमाण की विलक्षणता इस बात में निहित है कि इसमें हम बिना किसी की सहायता के कर्म में स्वतः प्रवृत्त होते हैं । यह कर्म की मानवी-प्रस्थिति के सर्वथा अनुकूल भी है क्योंकि कर्म की प्रत्येक परिस्थिति अपने आप में बहुत विलक्षण होती है और उस परिस्थिति की जटिल संरचना में 'कर्ता' स्वयं एक घटक होता है जो स्वरुपतः नितान्त अनन्य है। ऊपर से देखने पर यह प्रमाण बड़ा भयावह दिखता है क्योंकि "जो जिसको अच्छा लगे वही उसके लिए प्रमाण है"-एक प्रकार से स्वेच्छाचार जैसा है। पारम्परिक व्याख्या के अनुसार मनु निर्दिष्ट चारों प्रमाणों में संदेह की स्थिति उत्पन्न पर पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उतर - उत्तर का प्रामाण्य सबल माना जाता है । उदाहरण के लिए यदि श्रुतियों में विरोध हो तो स्मृति से अनुमोदित विकल्प का प्रामाण्य, यदि स्मृतियों में विरोध हो तो सदाचार से अनुमोदित विकल्प का प्रामाण्य और यदि सदाचार में भी विरोध हो तो 'स्व' को जो प्रिय लगे उस विकल्प में प्रामाण्य का ग्रहण किया जाना चाहिए । परन्तु चौथे प्रमाण पर उसकी स्वायत्तता में विचार किया जाय तो वास्तव में यह एक ऐसा प्रमाण्य है जो हमें किसी उदाहरण को देकर छुट्टी पाने का अवसर नहीं देता बल्कि सम्पूर्ण उत्तरदायित्व हमारे ऊपर ही छोड़ देता है। अतएव 'स्वस्य
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