Book Title: Vidyabhushan Granth Sangraha Suchi
Author(s): Gopalnarayan Bahura, Lakshminarayan Goswami
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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शिक्षाकी ओर उनका श्रगाध अनुराग था । स्वयं तो वह वाणी मन्दिरकी देहली पर यावज्जीवन साधनाके प्रसून समर्पित करते ही रहे, औौरों को भी इसके लिए प्रेरणा और उत्साह प्रदान करते रहना उनका सहज स्वभाव था । पारीक हाईस्कूल (वर्तमान कालेज) को एक साथ सात सहस्र रुपयोंका दान देकर उसकी ग्राधार-शिलाको सुदृढ़ बनाने में विद्याभूषणजीका सहयोग अग्रणी रहा है ।
साहित्यसेवाकी ओर उनका प्रवल श्राकर्षण छात्रावस्था से ही था जो स्नातकोत्तर अवस्थामें पहुँच कर इतना उत्कट हो उठा कि उनके सम्पर्की जन साहित्य और विद्याभूषणजी में तादात्म्यदर्शन करने लगे थे । इस प्रकार के साहित्याकर्षणके मूल स्रोतका परिचय देते हुए स्वयं विद्याभूषणजीने सुन्दरग्रन्थावलीकी सम्पादकीय भूमिकामें व्यक्त किया है कि "हमारे स्वर्गीय पूज्य पिताजी, जो भाषासाहित्यके प्रेमी और मर्मज्ञ थे और जिनकी धर्म और ज्ञानमें बड़ी श्रद्धा थी, सुन्दरविलास, सुन्दरदासकृत सवैया संवत् १९३३का लीथो प्रेस का छपा बड़े ग्रानन्दसे पढ़ा करते । स्वामी गोपालदासजी भी, जो हमारे पिताजी के सत्संगी थे, हमको सुन्दरस्वामीकी रचनाओं में से यथा ' मूंसा इत उत फिरै ताक रही मिनकी । चंचल चपल माया भई किन की ।' 'राम हरि राम हरि बोल सूवा' इत्यादि बड़े प्रेम, रस और स्वरसे पढ़ कर सुनाते । तव जो भाव हमारे चित्तका होता, वह कथनीय है । फिर तो हम उक्त ग्रन्थको बड़ी तल्लीनता से पढ़ने लग गये । हमें ऐसा जान पड़ता मानो हम ग्रानन्दके सरोवर में गोता लगा रहे हैं । निदान, हमारी रुचि और भक्ति सुन्दरस्वामीके वचनामृतमें तवसे ही हो गई थी । " ( सुन्दरग्रन्थावली, भूमिका, पृष्ठ ३ )
स्पष्ट है कि विद्याभूषणजीकी साहित्यप्रविष्टिका सिंहद्वार उनका सुन्दरदासजी की रचनाओं के प्रति प्रवल आकर्षण ही था । यह ग्राकर्षण वढ़ता ही गया और सुन्दरदासजीके साथ-साथ सम्पूर्ण सन्तसाहित्य के बहुमूल्य रत्नों पर उनकी दृष्टि स्थिर हो गई । अधिक से अधिक समय सन्तसाहित्य में लगने लगा । जिस प्रकार निर्मल दर्पणमें प्रतिविम्ब संक्रान्त होता है, उसी प्रकार विद्याभूषणजी की ग्रात्मा पर सन्तवाणीका दर्शन प्रालोड़ित हो उठा । इस ग्रात्मयोग की स्थिति स्वयं उस शोधकर्ताको भी सन्तके प्रातिस्विक रूपमें तदाकार बना दिया ! उन्हें घुन हुई कि यह साहित्य, जो दीमकों, उपेक्षात्रों, अज्ञता और दूमलों में प्रदृश्य होता जा रहा है, रक्षित होना ही चाहिए। वस्तुतः राजस्थानकी भूमि पर हस्तलिखित प्रज्ञात-ज्ञात ग्रन्थोंके प्रथम उद्धारक के रूपमें विद्याभूषणजीने जो प्रबल प्रयत्न आरंभ किया उससे बहुत सा जीर्णशीर्ण साहित्य कालकवलित होते-होते बच गया ।
उस समय तक नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, अखिल भारतीय स्तर पर कार्य करनेका उपक्रम कर रही थी किन्तु व्यापक क्षमता और साधनोंकी बहु