Book Title: Vandaruvruttya Parnamni Shraddha Pratikraman Sutra Vrutti
Author(s): Devendrasuri
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 13
________________ RECRUCIENCE ॥श्रीमद्देवेन्द्रमूरिवरनिर्मिता वन्दारुवृत्त्यपरनाम्नी श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिः॥ ऐं नमो वीतरागाय ॥ वन्दारुवृन्दारकवृन्दवन्द्यं प्रणम्य वीरं जितमारवीरम् । उपासकानामुपकारहेतोर्वक्ष्याम्यनुष्ठानविधिं सुवोधम् ॥१॥ इह हि तावत् श्रावकेणापि प्रत्यहं त्रीन् , पञ्च, सप्त वा, वारान् दर्शनविशुद्धार्थ चैत्यवन्दना विधेया॥यदाहुः"साहूण सत्त वारा, होइ अहोरत्तमज्झयारंमि। गिहिणो पुण चिइवंदण, तिय पंच य सत्त वा वारा॥१॥" तथा वन्दनकं चाष्टौ कारणान्याश्रित्य गुणवत्प्रतिपत्तये गुरूणां दातव्यम् । तथा सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थ प्रतिक्रमणं चोभहै यकालमवश्यमनुष्ठेयमिति । तत्र चैतत्सर्वमप्यनुष्ठानं साक्षादेव गुर्वभावे स्थापनाचार्यस्थापनापूर्वकमेव विधेयम् । यदाहुः दुष्पमान्धकारसम्भारनिमग्नजिनप्रवचनप्रदीपप्रतिमाः श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपादाः “गुरुविरहंमि य ठवणा गुरूवएसोवदंसणत्थं च । जिणविरहंमि य जिणबिंबसेवणामंतणं सहलं ॥१॥रनो वि परुक्खस्स विजं सेवा मंतदेवयाए वा । तह चेव परुक्खस्स वि गुरुणो सेवा विणयहेउत्ति ॥२॥” सा च नमस्कारपृर्विकेत्यतः स एवादी व्याख्यायत इति । सूत्रं चेदम् - Jain Educatal For Private & Personel Use Only www.jainelibrary.org

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