Book Title: Vanaspatiyo ke Swalekh
Author(s): Jagdishchandra Vasu, Ramdev Mishr
Publisher: Hindi Samiti

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Page 215
________________ 167 सूर्य और उसका पर्ण-रथ पर्ण और स्थलाधार में तंत्रिका-सम्बन्ध मैंने अन्य स्थान पर दिखाया है कि चारों अधः पर्णवृन्त और चारों चतुष्कोणों में निश्चित तंत्रिका-सम्बन्ध हैं। इस प्रकार बायें अधः पर्णवृन्त में मन्द विद्युत्-आघात देने पर वह एक तंत्रिका-आवेग को प्रेरित करता है, फिर यह चतुकोण 1 में पहुँचकर लाक्षणिक अनूक्रिया बायीं ओर की ऐंठन उत्पन्न करता है / इसी प्रकार दाहिने अधः पर्णवृन्त की उद्दीपना द्वारा दाहिनी ऐंठन होती है / मध्य अधा पर्णवन्तों की उद्दीपना द्वारा ऊपर और नीचे की गति होती है / पत्तियों वाले अधः पर्णवृन्तों को विद्युत्-आघात के स्थान पर प्रकाश की उद्दीपना देने पर भी समान परिणाम होते हैं। . बँधा हुआ शलभ मनुष्य नाव चलाते समय यदि केवल एक ही पतवार चलाये तो वह वहीं गोलाकार घूमता रहेगा, आगे नहीं जा सकता। किसी निर्दिष्ट दिशा में उद्देश्यपूर्ण गति तभी होती है जब दोनों पतवार समान बल से चलाये जायें। यदि कई शलभों को एक समूह में महीन डोरे से इस प्रकार कस कर बांध दिया जाय कि डोरा पंखों की स्वतंत्र गति में बाधक न हो, तो ये प्रकाश की ओर उन्मुख दिखाई देंगे / इसका कारण यह है कि इस दशा में इनकी दोनों आँखें प्रकाश द्वारा उद्दीप्त होंगी और जिस तंत्रिका-आवेग का पारेषण पंखों तक होता है, वह उन्हें समान गति और शक्ति से फड़फड़ाने के लिए बाध्य करता है। यदि एक आँख भी संयोगवश प्रकाश से तिरछी हो जाय तो उसे उद्दीपना कम मिलेगी। इससे शलभ को इस प्रकार घूमना पड़ता है कि दोनों आँखों को समान मात्रा में प्रकाश मिले। पर्ण उस शलभ की तरह सक्रियता दिखाता है, जो बंधा होने पर प्रकाश की ओर मुड़ता है। अतः वनस्पति में यदि प्रकाश की एक तिरछी किरण एक अधः पर्णवृन्त पर पड़े, जैसे बायीं तरफ संख्या 1 पर, तब ऐंठन होती है। इससे पर्ण तब तक घूमता रहता है जब तक चतुर्थ अधः पर्णवृन्त प्रकाश की ओर न आ जाय; किन्तु अधः पर्णवन्त की उद्दीपना द्वारा पर्ण दाहिनी ओर ऐंठेगा और लगेगा कि पहले की गति में बाधा उत्पन्न हो गयी। दोनों अधः पर्णवृन्तों के समान प्रकाशित होने पर दोनों विपरीत अभिक्रियाओं का सन्तुलन होता है। आपाती प्रकाश के सीध में होने पर 9. 'The Dia-Heliotropic Attitude of Leaves as Determined by Transmitted Nervous Excitation,' Proceedings of Royal Society', B. Vol. 93, 1922, p. 153.

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