Book Title: Vakrokti Jivitam Author(s): Radhyshyam Mishr Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan View full book textPage 7
________________ ( १२ ) 'अत्र त्रिलिङ्गत्वे सत्यपि तट' शब्दस्य, सौकुमार्यात् स्त्रीलिङ्गमेव प्रयुक्त ।" ( ३ ) इतना ही नहीं, कुन्तक की वक्रताओं की ओर अभिनवभारती में उन्होंने स्पष्ट निर्देश भी किया है । अभिनवभारती में नाम, श्राख्यात, उपसर्ग प्रादि की विचित्रता का प्रतिपादन करते हुए विभक्तिवैचित्र्य की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है - "विभक्तयः सुप्तिब्वचनानि तैः कारकशक्तयो लिङाद्युपग्रहाश्चोपलक्ष्यन्ते । यथा 'पाण्डिनि मग्नं वपुः । इति वपुष्येव मज्जनकर्तृकत्वं तदायत्तां पाण्डिम्नश्चा धारतां गदस्थानीयतां द्योतयन्नतीव रञ्जयति न तु पाण्डुस्वभावं वपुरिति । एवं कारकान्तरेषु वाच्यम् । वचनं यथा 'पाण्डवा यस्य दासाः' सर्वे च पृथक् चेत्यर्थ तथा वैचित्र्येण 'त्वं हि रामस्य दाराः । एतदेवोपजीव्यानन्दवर्द्धनाचार्येणोक 'सुप्तिवचनेत्यादि ।' अन्यैरपि सुबादिबकता । यहाँ 'अन्यैः' के द्वारा स्पष्ट ही कुन्तक की ओर निर्देश किया गया है 1 'मैथिली तस्य दाराः' और 'पाण्डिनि मग्नं वपुः' आदि उदाहरणों को कुन्तक ने भी संख्या तथा वृत्तिवक्रता के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है । ऐसा न स्वीकार करने का कोई समुचित कारण भी नहीं है । क्योंकि परवर्ती प्रन्थों एवं प्रन्थकारों के उल्लेख से सुवादि वक्रताओं का विवेचन करने वाला कुन्तक के अलावा कोई दूसरा आचार्य उल्लिखित नहीं है । वकोक्तिवादी के रूप में आचार्य कुतक ही प्रसिद्ध हैं । महिमभट्ट ने इन्हीं की वक्रताओं और आनन्द को ध्वनियों को एकरूप कहा है । साहित्यभीमांसाकार ने वाक्ये प्रकरणे तथा । ध्वनिवर्णपदार्थेषु प्रबन्धेऽयाहुराचार्याः केचिदु वक्रत्वमाहिमतम् ॥ कहकर षड्विध वक्रताओं का प्रतिपादन करने वाली कुन्तक की हो कारिकाओं को उद्धृत किया है, किसी अन्य आचार्य की नहीं, जब कि 'ध्वनिवक्रता' का विवेचन कुन्तक ने नहीं किया। यदि ध्वनिवक्रता की उद्भावना स्वयं साहित्यमीमांसाकार की न होती तो कम से कम उसके समर्थन में तो किसी अन्य आचार्य का उदाहरण देते । अतः निश्चित ही यहाँ सन्देह के लिये कोई स्थान नहीं है। किन्तु जिसे सन्देह करने की आदत ही पड़ जाय उसका क्या उपाय ? क्योंकि सन्देह तो किसी भी विषय में आसानी से किया जा सकता है । कुन्तक को अभिनव का पूर्ववर्ती न स्वीकार करनेवाले विद्वान हैं - डॉ० शंकरन १. व० जी० २।२२ तथा वृत्ति । ३. सा० मी०, पृ० ११५ । २. अमि० भा०, पृ० २२७-२२९ । ४. द्रष्टव्य Some Aspects-pp. ?Page Navigation
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