Book Title: Vakrokti Jivitam
Author(s): Radhyshyam Mishr
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 6
________________ म० लाहिरी और डॉ० मुखर्जी का यह अभिमत पूर्णतः सत्य है। वस्तुतः कुन्तक के वक्रोक्ति सिद्धान्त का सरलता से प्रत्याख्यान करना असम्भव था अतः अभिनव ने उसका अन्तर्भाव भरत के लक्षणों में कर देने का प्रयास किया । अभिनव के लक्षणविवेचन के अतिरिक्त अन्य भी कुछ ऐसी बातें हैं जो अभिनव को कुन्तक का परिवर्ती सिद्ध करती है, यहाँ उन्हीं पर विचार किया जा रहा है( १ ) आचार्य आनन्दवर्द्धन ने ध्वन्यालोकवृत्ति में प्रतीयमान रूपक के उदाहरण रूप में 'प्राप्त श्रीरेव कस्मात्' आदि श्लोक उद्धृत किया है। ' कुन्तक ने इसे ही 'प्रतीयमानव्यतिरेक' के उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया है किन्तु उन्होंने आनन्द के मत को भी बड़ी श्रद्धा के साथ इन शब्दों में व्यक्त किया है. 'तत्त्वाध्यारोपणात् प्रतीयमानतया रूपकमेव पूर्वसूरिभिराम्नातम् । २ इसी श्लोक की व्याख्या करते हुए अभिनव ने कहा हैं 'यद्यपि चात्र व्यतिरेको भाति तथाऽपि स पूर्ववासुदेवस्वरूपात नाद्यतनात् ।। क्या अभिनव का यह कथन कुन्तक के अभिमत की ओर इङ्गित नहीं करता ? ( २ ) समान वाचकों में से किसी एक के ही चारतावैशिष्टय का प्रतिपादन करते हुए अभिनव ने कहा है 'तदी तारं ताम्यति । इत्यत्र तटशब्दस्य पुंस्त्वनपुंसकत्वे अनाहत्य स्रीत्वमेवाश्रितं सहृदयैः-'स्रीति नामापि मधुरम्' इति कृत्वा । अभिनव का यह कथन निश्चित रूप से कुन्कक ने 'नामैव स्त्रीति पेशलम्" कारिकांश और उसकी वृत्ति का अनुवादमात्र है। कुन्तक के लिङ्गवैचित्र्यवक्रता का निरूपण करते हुए कहा है सति लिङ्गान्तरे यत्र स्रीलिञ्च प्रयुज्यते । .. शोभानिष्पत्तये यस्मानामैव स्त्रीति पेशलम् ।। इसके उदाहरण रूप में उन्होंने 'तटी तारं ताम्यति' आदि श्लोक उद्धृत कर उसकी व्याख्या में कहा है . the सम्मवतः डॉ० मुकर्जी ने यह बताया था कि लोचन में कुछ स्थलों पर कुन्तक की बात का निर्देश किया गया है, जैसा कि डॉ० काणे के इस कथन से स्पष्ट है 'Dr. Mookerji is not at all right in thinking that the Locana alludes to Kuntaka (B.C. Law Vol. I. P. 183). This iş po evidence worth the name to prove this or events make the inference very probable" -H. S. P. (P. 188-189 ). १. द्रष्टव्य ध्वन्या०, ५० २६१-२६२ । २. व० जी०, १० ३८९ । ३. लोचन, पृ० २३२ । ४. वही, पृ० ३५९ ।

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