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प्रकाशकीय एवं सम्पादकीय
साहित्य के क्षेत्र में सुभाषितों एवं सूक्तियों का अपना स्थान है। सुभाषित काव्यों में धर्म, नीति, वैराग्य, शृङ्गार आदि सभी विधाओं को स्थान मिला है । सुभाषित और सूक्तियाँ कभी तो किसी मूल ग्रन्य का एक अङ्ग होती हैं और कभी उन्हें उन कथाग्रन्थों से अथवा उपदेशपरक ग्रन्थों से अलग करके संकलित कर लिया जाता है। जैन आचार्यों ने भी प्राकृत और संस्कृत भाषा में ऐसे अनेक सूक्तिग्रन्थों का संकलन किया है । वज्जालग्ग भी एक सूक्तिग्रन्थ है। इसके सन्दर्भ में हमें स्पष्ट हो जाना चाहिए कि इसकी अधिकांश गाथाएँ संकलनकर्ता की अपनो मौलिक रचना न होकर विविध ग्रन्थों से संकलित की गयी हैं। यद्यपि यह सम्भव है कि इसमें कुछ सूक्तियों का प्रणयन स्वयं संकलनकर्ता ने भी किया हो । संकलनकर्ता ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही इस तथ्य को स्पष्ट कर देता है
विविह कइविरइयाणं गाहाणं वरकुलाणि घेत्तूण ।
रइयं वज्जालग्गं विहिणा जयवल्लहं नाम ।। अर्थात् विविध कवियों द्वारा रचित श्रेष्ठ गाथाओं को लेकर जयवल्लभ ने वज्जालग्ग की रचना की। अतः यह स्पष्ट है कि यह एक संकलन ग्रन्थ है।
प्राकृत साहित्य में सक्ति-कोशों की यह परम्परा राजा हाल से प्रारम्भ होतो है। उनकी गाथा सप्तशती (गाहासत्तसई) सुप्रसिद्ध है। गाहासत्तसई के बाद प्राकृत के सूक्ति-कोशों में वज्जालग्ग का स्थान माना जा सकता है । यद्यपि हाल के गाहासत्तसई और वज्जालग्ग के बीच उवएसमाला जैसे अन्य सूक्तिसंग्रह निर्मित हुए हैं, किन्तु साहित्यिक दृष्टि से तो हमें उसके बाद वज्जालग्ग को ही स्थान देना होगा। ऐसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हिन्दी-जगत् को अलभ्य रहे, यह कमी सदैव खटकती रहो। आज वज्जालग्ग नामक यह सुभाषित ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद सहित पाठकों के हाथों में प्रस्तुत करते हुए हम प्रसन्नता एवं संकोच का अनुभव कर रहे हैं। हमें प्रसन्नता तो इस अर्थ में है कि प्राकृत का एक ग्रन्थरत्नजो हिन्दी-पाठकों के लिए दुर्लभ था-सुलभ हो गया। वस्तुतः यह
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