Book Title: Vajjalaggam
Author(s): Jayvallabh, Vishwanath Pathak
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 7
________________ समर्पण अब जिसकी वाणी दुर्लभ है, जिसका मिलना कठिन है, जिसका सुन्दर मुँह गूलर के फूल के समान सपना हो गया, जिसका रूप आँखों में नाचता है, जिसका गुण ध्यान पर चढ़ा है, जिसकी चेष्टायें सोचने पर हृदय में आग लग जाती है, जो जगत् में मुझे अपुत्र, माँ को निर्धन और सुकोमल हृदया बहन सुधा को भ्रातृहीन करके चला गया, जिसने मेरी दीवाली, माँ की तिलषष्ठी बहन का रक्षाबन्धन और पितामह की लाठी छीन ली, जिसने मेरे निकट वह घना अन्धकार छोड़ दिया है जो न तो दिन में सूर्य के निकलने पर नष्ट होता है और न रात में दीपक जलाने पर, हाय ! आज सुदूर स्वर्ग को गये हुए उसी निष्ठुर हरिप्रसाद को यह वज्जालग्ग आँसुओं के साथ समर्पित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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