Book Title: Uttaradhyayan Sutram
Author(s): Hiralal Hansraj
Publisher: Hiralal Hansraj
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श्रीउत्तराध्ययनसूत्र - बतीसमाध्ययनम्
पट्टचित्तोय चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ९८ ॥ भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । नलिई भवमज्झे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणी पलासं ॥ ९९ ॥ एविन्दियत्थाय मणस्स अत्था दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो । ते चैव थोपि कयाइ दुखं, न वीयरागस्स करेन्ति किंचि ॥ १०० ॥ न कामभोगा संयं उत्रेन्ति, न यावि भोगा विगई उवेन्ति । जेतप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेह ॥ १०१ ॥ कोहं च माणं च तदेव मायं, लोहं दुगुच्छं अरई रई च । हासं भयं सोगपुंमित्थिवेयं, नपुंसवेयं विविहे य भावे ।। १०२ ।। आवञ्जई एवमणेगरूवे, एवंविहे कामगुणेसु सत्तो । अने य एयपभवे विसेसे, कारुण्णदीणे हिरिमे वहस्से ॥ १०३ ॥ कं न इच्छिज्ज सहायलिच्छू, पच्छाणुतावे न तवप्पभावं ।
एवं वियारे अमिय पयारे, आवज्जई इन्दियचोरवरसे ॥ १०४ ॥ ओ से जायन्ति यणाई, निमिज्जिउं मोह महण्णवम्मि | सुसिणो दुक्खविणोयणट्ठा, तप्पच्चयं उज्जमए य रागी ॥ १०५ ॥ विरज्जमाणस्स य इन्दियत्था, सद्दाइया तावइयप्पगारा । न तस्स सवे वि मणुन्नयं वा, निवत्तयन्ती अमणुन्नयं वा ॥ १०६ ॥ एवं ससंकप्पविकप्पणासुं, संजायई समयमुवट्ठियस्स । अत्थे असंकप्पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु तन्हा ॥ १०७ ॥ स वीयरागो कयसवकिच्चो, खवेइ नाणावरणं खणेणं । तदेव जं दंसणमावरे, जं चन्तरायं पकरेइ कम्मं ॥ १०८ ॥ सवं तओ जाणइ पासए य, अमोहणे होइ निरन्तराए । अणासवे झाणसमाहिजुत्ते, आउक्खए मोक्खमुवेइ सुद्धे ॥ १०९ ॥ सो तस्स सङ्घस्स दुहस्स मुक्को, जं वाहई सययं जन्तुमेयं । दीहामयं विमुको सत्थो, तो होह अच्चन्तसुही कत्थो ॥ ११० ॥ अणाइकालप्पभवस्स एसो, सङ्घस्स दुक्खस्स पमोक्खमग्गो । वियाहिओ जं समुविच्च सत्ता, कमेण अच्चन्तसुही भवन्ति ॥ १११ ॥ त्ति बेमि ॥ इअ पमायट्ठाणं समत्तं ॥ ३२ ॥
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