Book Title: Updeshsaptatika
Author(s): Kshemrajmuni, 
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 491
________________ बहुस्सुयाणं सरणं गुरूणं, पागम्म निच्चं गुणसागराणं । पुहिता अत्थं तह मुकमग्गं, धम्मं वियाणित्तु चरिङ जुग्गं ॥ १५ ॥ तुमं अगीयत्थनिसेवणेणं, मा जीव जई मुण निष्ठएणं । संसारमादिंडसि घोरफुलं, कयाऽवि पावेसि न मोकसुकं ॥३॥ कुमग्गसंसग्गविलग्गबुध्धी, जो बुज्जर मुध्धमई न धिधी। तस्सेव एसो परमो अलाहो, अंगीकर्ड जेण जणप्पवाहो ॥२४॥ ब्जीवकाए परिररिकऊणं, सम्मं च मिळू सुपरिस्किऊणं। सिधंतशत्थं पुण सिरिकऊणं, सुही जई होइ जयम्मि नूणं ॥ २५ ॥ श्मे चश्ऊंति जया कसाया, तया गया चित्तगया विसाया। पसंतजावं खु लहिउ चित्तं, तत्तो नवे धम्मपदे थिरत्तं ॥ ६ ॥ धणं च धन्नं च बहुप्पयारं, कुटुं(९)वमेयंऽपि धुवं असारं । 427 C%ER***%%ro hirt Jain Education v s Personal Use Only www.jainelibrary.org

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