Book Title: Updeshsaptatika
Author(s): Kshemrajmuni, 
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 497
________________ Jain Education International अश्चंत पावोदयसंजवार्ड, जे जीरुणो जवगणा जवार्ड । तेसिं सुहाणं सुलहो जवार्ड, नो संजविका जवसन्निवार्य ॥ ५५ ॥ धणं च धन्नं रयणं सुवन्नं, तारुसरूवाइ जमित्थ अन्नं । विवस चव खु एयं, धरेह जवा दियए विवेयं ॥ ५६ पुता कलत्तापि य बंधु मित्ता, कुटुंबिणो चेव इद्देग चित्ता । धारक पाववसा समेए, न ररकणत्थं पजवंति एए ॥ ५७ ॥ जेसिं मणे पावमई निविद्या, निवा वित्ती पुण संकि लिहा । याऽवि ते हुंति न हि तुहा, सवत्थ पावंति दुदाइ दुधा ॥ ५८ ॥ वनं वयंता जिणचेश्याणं, संघस्स धम्मायरियाइयाणं । कृति वा सुखदं सुबोदिं, श्रवन्नवारण पुणो अबोहिं ॥ २९ ॥ अनाया दोसवसाणुजावा, मुषंति तचं न हु किंपि पावा । 483 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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