Book Title: Updeshsaptatika
Author(s): Kshemrajmuni, 
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 499
________________ वावग्गमित्तोऽपि न सो पएसो, जत्थोबइन्नो नुवणमिम एसो। जीवो समावङियपावलेसो, न पाविउँ कत्य य सुरकसो ॥६६॥ मुबई पाविय माणुसत्तं, कुवं पवितं तह अऊ खित्तं । तत्तं सुणित्ता सुगुरूहि वुत्तं, तुम्नं पमायायरणं न जुत्तं ॥ ६ ॥ बालत्तणं खिड्डपरो गमेह, तारुमर जोगसुखे रमेई। येरत्तणे कायवलं वमेई, मूढो मुहा कालमश्कमेइ ॥ ६ ॥ बहुत्तणा वि न जेण पुन्नं, समडियं सवगुगोहपुन्नं । थेरत्तणे तस्स य नावयासो. धम्मस्त जत्थ थि जरापयासो ॥६॥ पुर्वि कयं जं सुकयं उदारं, पत्तं नरत्तं नणु तेण सारं । करेसि नो य जया सुकम्मं, कहं सुहं जीव बहेसि रम्मं ॥ ७० ॥ तवेष पस्काखियकम्मलेबो, अन्नो जिर्षिदाउ न कोई देवो । 495 Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506