Book Title: Updeshsaptatika
Author(s): Kshemrajmuni, 
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 489
________________ असारसंसारसुहाण कजे, जो रजाई पावमई थवले । अप्पाणमेसो खिवई किसेसे, सग्गापवग्गाण कई सुई से ॥१॥ नरिंददेवेसरपृश्याणं, पूयं कुणंतो जिणचेश्याएं। . दवेण जावेण सुहं चिणेश, मिछत्तमोहं तह निहिणे ॥ ११ ॥ पुवं सतिवं नरए सहित्ता. पंचिंदियत्तं पुण जो महित्ता। पमायसेवाइ गमिङ कालं, सो संघिही नो गुरुमोहजालं ॥ १३ ॥ सवोवहाणा करित्तु पुर्व, कया गुरूणं च पणामपुवं । सुत्तं च अत्यं महुरस्सरेणं, श्रहं पढिस्सं महयायरेणं ॥ १४ ॥ कमळुवाहीहरणोसहाणि, सामाश्यावस्सयपोसहाणि । सिध्धंतपन्नत्तविहाणपुवं, अहं करिस्सं विषयाइ सबं ॥ १५ ॥ धाणं गुरुवं सिरसा वहिस्सं, सुत्तत्यसिखं विउ बहिस्सं। 475 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506