Book Title: Updeshratnakar
Author(s): Munisundarsuri, Munisundarsuri
Publisher: Jain Dharm Vidya Prasarak Varg

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Page 378
________________ 0000००००००००००० नक्तं च ताज्यां, राजन कोटिन्नरमात्मानं मा मुधा नाशय? पुष्करकरणानिप्रायादेव तत् पापं नष्टं, ततः श्रीगुरुवाग्निः प्रबुधः सः ॥ १५ ॥ अमात्याद्यैः कृतः प्राढो नगरप्रवेशमहः, अन्यदा धर्मव्याख्यावसरे श्रीवप्पजर्जिनादिधर्मतत्त्वानि प्राह ॥ १६ ॥ ततो जैन धर्म परीक्षापूर्व राजन् श्रयेत्याह च. राजा प्रा. हाहतो धर्मो । निर्वहत्येव मादृशां ॥ परीक्षायां परं शैव-धर्म चेतोऽनगद् दृढं ॥ १७ ॥ तेन तं धर्म न मुंचे. इत्यादि, अन्यच्च जगवन् किंचिघमि. लवं. तोऽपि बालगोपासादिकं प्रबोधयंति नतु कोविदं ॥ १८ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर __ तथा ताण कयु के. हं राजन : क्रोमोनुं जगणपोपण करनारा एवा नमाग आत्मानो तमो फोकट | विनाश नही कगे? में प्रादुष्कर्म कयुं जे. एवा पश्चातापयीन तमार ने पाप नष्ट थयु में; पर्छ। एत्री रीतनां । श्रीगुरु महाराजनां वचनोथी ते राजा प्रतिबाध पाम्यो ॥ १७ ॥ तथा प्रधान आदिकोए मोटा आबस्थी नेनो नगरमा प्रवेश महोत्सव कयों; एक बखते धर्मव्याग्व्यान अवसरे श्रीवपनटिजीए नादिक धर्मनां नत्वो कयां ॥ १७६ ।। तया पर्ची का के, हे राजन परीका पूर्वक नमो हवे जैनधर्म स्वीकारो? त्यारे राजाए कयुं के, 8 मारा जेवाने जैनधर्म पर कामां नो वरावर उतरे , परंतु मार्फ मन शिवधर्ममा दृढ चोटेचं वे ॥ १७॥ माटे ते । धर्मनी हुं न्याग करूं नहींन्यादि, कळी पण हे जगवान' हुं आपने कंधक कहुं वं के, आप पण बालगोपाल | आदिकने तो प्रबोगे छो. पान कोई विहानने पबोधी शकता नयी ॥ ७ ॥

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