Book Title: Updeshratnakar
Author(s): Munisundarsuri, Munisundarsuri
Publisher: Jain Dharm Vidya Prasarak Varg
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ततो नृपस्य सत्वेन संतुष्टो जनोपवानिवृत्तो मैत्री प्रपेदे; आमो मित्रयक्षपार्श्व स्वायुर्मानं पाच ॥ १५ ॥ पण्मास्यामेव शेषायां कथयिष्यामीत्युक्त्वा यशस्तिरोऽनूत् : अवसरे च स तब्रवीत् ॥ १६ ॥ गंगांतर्मागधेन तीर्थनावतरतस्ते मृत्युरस्ति, जनामं नियंतं दृष्ट्वा तदन्निज्ञानं ज्ञेयं ॥ १७ ॥ प्रेत्यामाचरेति च; ततो राजा श्रीगुरुपदेशान्महता विस्तरेण श्रीशत्रुजययात्रां कृत्वा दिगंबरगृहीतं श्रीगिरनारतमिवालयन् ॥ २९ ॥ ताः स्वपुरं प्राप्य हुकं राज्ये निवेश्य प्रजाः कमयित्वा गंगातीरस्यमागधतीर्य प्रति चवन्नावमामरोह सूरिणा सह ॥ २१५ ॥
श्री उपदेशरत्नी
- पी ग़जाना पराक्रमथी संतुष्ट थइ ते ओकोने उपद्रव करवायी अटक्यो, तथा मित्ररुप ययो पनी आम गनार ने यरुषी मित्रनी पासे योताना आयुर्नु प्रमाण प्रन्यु ॥ १५ ॥ त्यारे यत कयु के, छ | मास ज्यारे बाकी रहेशे, त्यारे कहीश, एम कही ने अझोप धयो ; नया अवसर आव्ये नणे कयु के ॥ १६ ॥ गंगानी अंदर मागध नामना नीर्थयो उत्तरतां नारं मृत्यु , जळमाथी धमाको निकळतो जोड्ने नेर्नु एंधाण नागवं ॥ १७ ॥ माटे हवे परलोक माटे नुं सावधान था?. पनी गाए श्री गुरुमहाराजना उपदशर्थी माटा विस्तारपूर्वक श्रीशत्रुजय नीर्थिनी यात्रा करीन दिगंबराए ग्रहण करेनां श्रीगिरनार तीर्थने पार्छ वान्यु ॥ १० ॥ | पंछी पोताना नगरमा श्रावीन तथा दुंदुकने गादीए बसामान, अन मजान खमावीने गंगान काठ रहेला मागध | नीयन प्रत्ये चालतो यको प्राचार्य महाराजनी साथे ने राजा नावा चम्यो ॥ २१ ॥

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