Book Title: Updeshratnakar
Author(s): Munisundarsuri, Munisundarsuri
Publisher: Jain Dharm Vidya Prasarak Varg

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Page 401
________________ । | ॥१७॥ ततो गुरुदत्तानिमंत्रितवारिणा सिकरसेनेव जात्यहेमातिर्नुपदेहोऽजूत, महान् हर्षों जिनधर्मप्रजावना ॥ २६ ॥ प्रातरुवंदनायागछन् शालाप्रवेशे स्त्रीकरणस्वरं शुश्राव भूपः, ततस्तां कंटेश्वरी निशि दृष्टा प्रत्यन्निशासीत् ॥ २० ॥ श्रीगुरुन् प्रसाद्य मंत्रबंधादमोचयच्च, तदन्वष्टादशदेशेषु जीवरहातलारङ्गतां कुर्वती सा राजनवनझारेऽस्यात् ॥ २७ ॥ अथ श्रीकुमारभूपोऽन्यदा वर्षासु श्रीपत्तनप्रतोलीन्यो बहिनिर्गमननियमं जग्राह, तं नियमं चरेज्यो ज्ञात्वा गुर्जरदेशनंजनाय गर्जनेशो महानीकः प्रयाणमकरोत् ॥ २ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर ___ पत्री श्रीगुरुमहाराजे आपझा मोझा पाणीव करीने ते जाणे सिघरसबमें करीने होय नहीं, तेम रा-18 जानु शरीर उत्तम मुवर्ण जेवी कांतिवार्छ थप गयु; अने तेथी मोटो हर्ष तया जैनर्मनी मनावना यह ॥२०६|| बनात गुरुमहाराजने वांदवा माटे ज्यारे राजा श्राव्यो. त्यारे पौषधशाळामां प्रवेश करती वखते तेणे कोक स्त्रीनो | करुणास्वर सांनळयो, तथा रात्रिये जाएली कंटकेश्वरीदेवीने रमती थकी नेणे अोळखी कहामी ॥ २७ ॥ पड़ी तेणे गुरुमहाराजने प्रसादित करीने तेणीने मंत्र बंधनधी गेमावी, अने ने वार पत्री अदारे देशो जीवरका | माटे चोकी करती यकी ते राजन्नुवनना घारमा रहेवा आगी । २०७॥ हवे एक वखने श्रीकुमारपाळरानाए वर्षाकालमां पाटणना दरवाजायी बहार नीकळवार्नु नियम सीधुं, तेना ने नियमने गुप्त मनुष्याची जाणीने गीजनीना सबताने गुजरातदेश नांगवा माटे मोटी सेनासहित प्रयाण कयु ॥ १५ ॥ 20.0000000000000000........

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