Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 4
________________ "जिस जिस प्रकारसे आत्मा आत्मभावको प्राप्त हो, वह प्रकार धर्मका है। आत्मा जिस प्रकारसे अन्य भावको प्राप्त हो वह प्रकार अन्य रूप है, धर्मरूप नहीं है । जीवको धर्म अपनी कल्पनासे अथवा कल्पनाप्राप्त अन्य पुरुषसे श्रवण करने योग्य, मनन करने योग्य या आराधने योग्य नहीं है । मात्र आत्मस्थिति है जिनकी ऐसे सत्पुरुषसे ही आत्मा अथवा आत्मधर्म श्रवण करने योग्य है, यावत् आराधने योग्य है ।" - पत्रांक ४०३, 'श्रीमद् राजचंद्र' ✩ " आत्माको विभावसे अवकाशित करनेके लिये और स्वभावमें अनवकाशरूपसे रहनेके लिए कोई भी मुख्य उपाय हो तो आत्माराम ऐसे ज्ञानीपुरुषका निष्कामबुद्धिसे भक्तियोगरूप संग है । ” - पत्रांक ४३२, 'श्रीमद् राजचंद्र' ✰ “परमात्मा और आत्माका एकरूप हो जाना (!) यह पराभक्तिकी आखिरी हद है । एक यही लय रहना सो पराभक्ति है । परम महात्म्या गोपांगनाएँ महात्मा वासुदेवकी भक्तिमें इसी प्रकारसे रही थीं । परमात्माको निरंजन और निर्देहरूपसे चिन्तन करनेपर जीवको यह लय आना विकट है, इसलिए जिसे परमात्माका साक्षात्कार हुआ है, ऐसा देहधारी परमात्मा उस पराभक्तिका परम कारण । उस ज्ञानी पुरुषके सर्व चरित्रमें ऐक्यभावका लक्ष्य होनेसे उसके हृदयमें बिराजमान परमात्माका ऐक्यभाव होता है, और यही पराभक्ति है । ज्ञानी पुरुष और परमात्मामें अन्तर ही नहीं है, और जो कोई अन्तर मानता है, उसे मार्गकी प्राप्ति परम विकट है। ज्ञानी तो परमात्मा ही हैं, और उसकी पहचानके बिना परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई है, इसलिये सर्वथा भक्ति करने योग्य ऐसी देहधारी दिव्यमूर्ति - ज्ञानीरूप परमात्माकी - -का नमस्कारादि भक्तिसे लेकर पराभक्तिके अन्त तक एक लयसे आराधन करना, ऐसा शास्त्रका आशय है। परमात्मा ही इस देहधारीरूपसे उत्पन्न हुआ है ऐसी ही ज्ञानीपुरुषके प्रति जीवको बुद्धि होनेपर भक्ति उदित होती है, और वह भक्ति क्रमशः पराभक्तिरूप हो जाती है...... पहले ज्ञानी पुरुषकी भक्ति; और यही परमात्माकी प्राप्ति और भक्तिका निदान है । " - पत्रांक २२३, 'श्रीमद् राजचंद' ✩ १" सन्त- चरण आश्रय विना, साधन कर्या पार न तेथी पामियो, ऊग्यो न अंश Jain Education International अनेक; विवेक. " ✩ १. संतके चरणके आश्रयके बिना अनेक साधन किये, किंतु उससे संसार का अंत न आया, और अंशमात्र भी विवेक उदित नहीं हुआ । For Private & Personal Use Only - श्रीमद् राजचंद्र www.jainelibrary.org

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