Book Title: Upasakdashanga aur uska Shravakachar
Author(s): Subhash Kothari
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 180
________________ श्रावकाचार १६७ सम्यग्दृष्टि, जघन्य श्रावक, देशविरतमध्यमपात्र एवं सकलविरतउत्तमपात्र । प्रायः सभी ग्रन्थों में यही भेद है । ' २. दातार - उपर्युक्त दाता के गुणों का जो वर्णन है, वही दातार है । ३. दातव्य - रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आहार, औषधि, उपकरण और आवास इन चारों को दान कहा है । २ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में औषधिदान, भोजनदान, शास्त्रदान और अभयदान माना है । २ वसुनन्दिश्रावकाचार में आहार, औषधि, शास्त्र और अभय ये चार भेद किये हैं । * ४. विधि - कार्तिकेयानुप्रेक्षा में बताया है कि उत्तम पात्र को उत्तम भक्ति से दान देना चाहिए | उपर्युक्त जिस नवधा भक्ति का वर्णन है, बही दान देने की विधि नाम से भी सम्बोधित की जाती है । ५. फल -- रत्नकरण्डकश्रावकाचार में वर्णित है कि दान से पापकर्म दूर होते हैं एवं कीर्ति की प्राप्ति होती है । " योगशास्त्र एवं वसुनन्दिश्रावकाचार में भी दान का फल उत्तम कहा गया है । अतिथि संविभाग के चार प्रकार - श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र, रत्नकरण्डकश्रावकाचार में अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, कम्बल और चौका पट्टा आदि औषध को दान के प्रकार माने हैं ।' उपासकाध्ययन में अभयदान, आहार १. क . पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, १७१ ख. अमितगतिश्रावकाचार, १०/३ २. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ११७ ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ६१ ४. वसुनन्दिश्रावकाचार, २३३ ५. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ६५ ६. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ११४-११५ ७. क. योगशास्त्र, ३/८६ ख. वसुनन्दिश्रावकाचार, २४०-२४२ ८. क. "असणपाणखाइमसाइमेणं, वत्थपडिग्गह कंबल पायपुच्छणेणं, पडिहारियपीढ फलग सेज्जासंथारे, ओसह भेसज्जेणं ॥ ख. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ११७ Jain Education International ग. वसुनन्दिश्रावकाचार, २२१-२२३ ध. सागारधर्मामृत, ५/४४ - श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र -- अणुव्रत, For Private & Personal Use Only १२ www.jainelibrary.org

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