Book Title: Upasakdashanga aur uska Shravakachar
Author(s): Subhash Kothari
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 238
________________ परिशिष्ट २२५ इंगालकम्मै : १/५१ = अंगारकर्म - अग्नि के संयोग से किये जाने वाले घोर हिंसात्मक कार्यं, जिनमें जंगलों को जलाकर कोयला बनाना, ईंटों का भट्ठा लगाना आदि अंगार-कर्म के अन्तर्गत आते हैं । उवसग्गा : २ / ११६ = उपसर्ग - धर्माराधना करने वाले व्यक्ति को धर्मंसाधना से स्खलित करने के लिए मनुष्य तिर्यञ्च या देव द्वारा दिये जाने वाले कष्ट एवं यातनाओं को उपसगं कहा जाता है । ओहि-नाणे : १/७४ = अवधिज्ञान -- आत्म-विकास को वह विशिष्ट शक्ति जो त्याग व तपस्या द्वारा प्राप्त की जाती है एवं जिससे एक निश्चित दूरी तक स्थित पदार्थों को देखने व समझने का ज्ञान प्राप्त होता है । W केबली : ७/१८७ = केवली - जिन महापुरुषों को त्याग व तपस्या के बल पर संसार के समस्त पदार्थों का ज्ञान हो जाता हो ऐसे विशुद्ध ज्ञान के धारी महापुरुषों को केवली कहा जाता है । गणाभिओगेणं : १/५८ = गणाभियोगेन - समाज या परस्पर कार्य कर रहे व्यक्तियों के दबाव में आकर अपनी मान्यता के विपरीत कार्य को करना | श्रावक व्रत पालन में इस कार्य को छूट के अन्तर्गत गिना जाता है । गाहावई : १/३ = गाथापति - 'गाहा' का अर्थ घर से है एवं 'वई' का अर्थ स्वामी से किया जाकर गाहा-वई इन दोनों के मेल से गाथापति शब्द बना है । सम्पन्न गृहस्वामी के लिए इस शब्द का प्रयोग होता है । गुरुनिग्गहेण : १/५८ = गुरुनिग्रहेण - माता-पिता, गुरुजनों व पूज्य व्यक्तियों द्वारा अनुग्रह होने पर अन्य मत व सम्प्रदाय में जाना पड़े एवं उस सम्प्रदाय की वहाँ प्रशंसा करनी पड़े तो उसे गुरुनिग्रहेण कहा जाता है | श्रावक व्रत पालन में इसकी छूट मिलती है । घरसमुदाण : १/७७ = गृहसमुदान- यह साधु की भिक्षाचर्या से सम्बन्धित है । इसमें साधु प्रत्येक घर से यथायोग्य वस्तु ग्रहण करता है तथा उस समय मन में यह भेद नहीं करता है कि अमुक घर से अच्छी वस्तु मिलेगी और अमुक से अच्छी नहीं मिलेगी, अर्थात् १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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