Book Title: Upasakdashanga aur uska Shravakachar
Author(s): Subhash Kothari
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 243
________________ २३० उपासकदशांग : एक परिशीलन समचउरंस-संठाण-संठिए : १/७६ - समचतुस्रसंस्थान संस्थित:-यह शब्द शरीर की आकृति से सम्बन्धित है, जिसमें समस्त शरीर के अंगों का एक दूसरे के अनुरूप व सुन्दर होता है। सम-सुहदुक्खसहाइया : ७/२२७ = समसुख दुःख सहायिका-स्त्री का विशे षण । अपने पति के सुख-दुःख में हिस्सा बँटाकर उसे सहयोग करने वाली स्त्री के लिए इस विशेषण का प्रयोग किया जाता सम्मत्त : १/४४ = सम्यक्त्व-यथार्थ रूप से जाने गये जीव, अजीव. पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध व मोक्ष का नाम ही सम्यक्त्व है। समोसरिए : १/२ = समवसृतः-तीर्थंकर आदि महापुरुषों की सभाओं, समितियों, परिषदों को समवसरण (समवसृतः) कहा जाता है। जहाँ सामूहिक रूप से जनता उपदेशो के लिए एकत्रित होती थी। सहस्सपागेहिं : १/२५ = सहस्रपाक-एक विशेष प्रकार का तेल, जिसमें सौ पदार्थों को सौ बार पकाया जाता हो और जिसका मूल्य सौ कार्षापण हो । कार्षापण से तात्पर्य उस समय की प्रचलित मुद्रा से है। साडीकम्मे : १/५१ = शकटकर्म-वाहन आदि के व्यापार करने को शकट कर्म कहा जाता है अर्थात् वाहनों को खरोदना व बेचना शकट कर्म है। सोहम्म : १/७४ = सौधर्म-ऊर्ध्व लोक, प्रथम देवलोक सौधर्म कहलाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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