Book Title: Upasakdashanga aur uska Shravakachar
Author(s): Subhash Kothari
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 240
________________ परिशिष्ट २२७ धम्माणुरागरत्ता : ७/२२७ = धर्मानुरागरक्ता - स्त्री का विशेषण । धर्म में अनुराग व श्रद्धा रखने वाली, जिसके आन्तरिक व बाह्य जीवन में धर्म का रंग चढ़ा हो । नियत्तण : १ / १९ = निवर्तन - प्राचीन काल में भूमि के एक विशेष माप के अर्थ में प्रयुक्त होने वाला शब्द । बोस बांस या दो सौ हाथ लम्बी-चौड़ी भूमि को 'निवर्तन कहते हैं । पडिमं : १ / ७१ = प्रतिमा - प्रतिमा एक विशिष्ट धार्मिक तप की क्रिया का नाम है । यह एक तरह का व्रत या अभिग्रह है इसमें आत्मा की शुद्धि के लिए धार्मिक क्रियाओं का विशेष प्रकार से अनुष्ठान किया जाता है । प्रतिमाएँ कुल ग्यारह तरह की होती हैं और प्रत्येक प्रतिमा में किसी एक धार्मिक क्रिया को लक्ष्य में रखकर सम्पूर्ण समय उसी क्रिया के सन्दर्भ में चिन्तन, मनन, अनुष्ठान व साधना में लगाया जाता है । पलिओ माई : १/६२ = पल्योपम - एक दीर्घकाल की सीमा का द्योतक है । जैन गणना काल की कालावधि में इसका प्रयोग होता है । पाडिहारिएणं : ७ / १८७ = प्रातिहारिक - गृहस्थों के यहाँ से ली हुई साधुसाध्वियों के काम में आनी वाली वस्तुएँ, जिन्हें काम हो जाने पर वापस लौटा दी जाती है प्रातिहारिक कही जाती है । ये चार हैं- पीठ, फलग, शय्या, संस्तारक । पोसहसालं : १ / ६९ - पौषधशाला - धर्मस्थान जहाँ व्यक्ति धर्माराधना करता है । ऐसा स्थान केवल धर्माराधना के लिए ही निर्मित किया जाता है । w फोडी कम्मे : १/५१ = स्फोटीकर्म – खान खोदना, कुएं खुदवाना आदि कार्य स्फोटन कर्म है | बलाभिओगेणं : १/५८ = बलाभियोगेन - सेना या बलशाली पुरुषों के दबाव में आकर उनकी आज्ञानुसार कार्य करना । श्रावक व्रतपालन में इसकी छूट रहती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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