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श्रावकाचार
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सम्यग्दृष्टि, जघन्य श्रावक, देशविरतमध्यमपात्र एवं सकलविरतउत्तमपात्र । प्रायः सभी ग्रन्थों में यही भेद है । '
२. दातार - उपर्युक्त दाता के गुणों का जो वर्णन है, वही दातार है । ३. दातव्य - रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आहार, औषधि, उपकरण और आवास इन चारों को दान कहा है । २ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में औषधिदान, भोजनदान, शास्त्रदान और अभयदान माना है । २ वसुनन्दिश्रावकाचार में आहार, औषधि, शास्त्र और अभय ये चार भेद किये हैं । *
४. विधि - कार्तिकेयानुप्रेक्षा में बताया है कि उत्तम पात्र को उत्तम भक्ति से दान देना चाहिए | उपर्युक्त जिस नवधा भक्ति का वर्णन है, बही दान देने की विधि नाम से भी सम्बोधित की जाती है ।
५. फल -- रत्नकरण्डकश्रावकाचार में वर्णित है कि दान से पापकर्म दूर होते हैं एवं कीर्ति की प्राप्ति होती है । " योगशास्त्र एवं वसुनन्दिश्रावकाचार में भी दान का फल उत्तम कहा गया है ।
अतिथि संविभाग के चार प्रकार - श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र, रत्नकरण्डकश्रावकाचार में अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, कम्बल और चौका पट्टा आदि औषध को दान के प्रकार माने हैं ।' उपासकाध्ययन में अभयदान, आहार
१. क . पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, १७१ ख. अमितगतिश्रावकाचार, १०/३ २. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ११७ ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ६१ ४. वसुनन्दिश्रावकाचार, २३३
५. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ६५
६. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ११४-११५
७. क. योगशास्त्र, ३/८६
ख. वसुनन्दिश्रावकाचार, २४०-२४२
८. क. "असणपाणखाइमसाइमेणं, वत्थपडिग्गह कंबल पायपुच्छणेणं, पडिहारियपीढ
फलग सेज्जासंथारे, ओसह भेसज्जेणं ॥
ख. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ११७
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ग. वसुनन्दिश्रावकाचार, २२१-२२३ ध. सागारधर्मामृत, ५/४४
- श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र -- अणुव्रत,
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