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श्रावकाचार
भेद करके' बाह्य के खेत, अनाज, धन, मकान, तांबा-पीतल आदि धातु, शय्या, आसन, दास-दासी, पशु एवं भोजन ये दस भेद किये हैं । आन्तरिक परिग्रह के मिथ्यात्व, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, शोक, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चौदह भेद किये हैं। पुरुषार्थसिद्धयपाय में भी बाह्य तथा आभ्यन्तर दो भेद करके आभ्यन्तर के १४ भेद एवं बाह्य के सचित्तपरिग्रह और अचित्तपरिग्रह ये दो भेद किये हैं। दास-दासी, गाय, भैंस आदि सचित्तपरिग्रह है, एवं मकान, बर्तन आदि अचित्तपरिग्रह हैं। यह दोनों ही प्रकार का परिग्रह हिंसा का अतिक्रमण नहीं करता है । अपरिग्रह स्वरूप
प्राचीन आगम ग्रन्थ उपासकदशांगसूत्र में उपरोक्त वर्णित परिग्रह के जो सात भेद बतलाये गये हैं उन्हीं के त्याग को अपरिग्रह या इच्छापरिमाणवत कहा है। भगवतीआराधना में आभ्यन्तर तथा बाह्य रूप से सर्व प्रकार की ग्रन्थियों को मन, वचन, काय के द्वारा त्याग करने को अपरिग्रह कहा है।' रत्नकरण्डकश्रावकाचार में धन-धान्य आदि का परिग्रह परिमाण करके उससे अधिक में निःस्पृह रहने को परिमित परिग्रहवत कहा है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है कि जो पुरुष लोभ को जीतकर सन्तोष रूप रसायन में सन्तुष्ट रहता है, यह संसार की सर्ववस्तुओं को विनश्वर मानता हुआ अपने उपयोग को जानकर धन-धान्य आदि दस प्रकार से परिग्रह परिमाण करता है उससे पाँचवाँ अणुव्रत होता है। उपासकाध्ययन में आचार्य सोमदेवसूरि ने बाह्य और आभ्यन्तर वस्तु में 'यह मेरी है' इस प्रकार के संकल्प को परिग्रह कहा है। उसके
१. उपासकाध्ययन, श्लोक ४३२ २. वही, श्लोक ४३३ ३. वही, श्लोक ४३३ ४. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ११५-१६ ५. उवासगदसाओ, १/१७ से २१ ६. भगवतीआराधना, १११७ ७. रत्नकरण्डकश्रावकाचार-श्लोक ३/६१ .८. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३८-३९
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