Book Title: Tulsi Prajna 2003 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 8
________________ इससे यह स्पष्ट तो हो ही जाता है कि वस्तु की नित्यता का प्रतिपादन द्रव्य दृष्टि से होता है और अनित्यता का प्रतिपादन पर्याय दृष्टि से अर्थात् द्रव्य नित्य है और पर्याय अनित्य । इसी से यह भी फलित हो जाता है कि द्रव्यार्थिक दृष्टि अभेदगामी है और पर्यायार्थिक दृष्टि भेदगामी, क्योंकि नित्य में अभेद होता है और अनित्य में भेद । भगवती में कहा है कि मैं द्रव्य रूप से एक हूँ, ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से दो हूँ । आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ और अवस्थित ( कालत्रयी स्थायी नित्य ) हूँ तथा (विविध विषयों के) उपयोग की दृष्टि से मैं अनेक भूत-भाव - भाविक (भूत और भविष्य के विविध परिणामों के योग्य) भी हूँ। 13 यहाँ आत्मा की एकानेकता बतायी गयी है । यहाँ द्रव्य और पर्याय नय का आश्रयण स्पष्ट है। यहाँ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि द्रव्यदृष्टि एकत्वगामी है और पर्यायदृष्टि अनेकत्वगामी, क्योंकि नित्य एकरूप होता है और अनित्य अनेक रूप होता है । विच्छेद कालकृत, देशकृत होता है और अविच्छेद भी कालकृत, देशकृत और वस्तुकृत होता है । कालकृत विच्छिन्न को नित्य, देशकृत विच्छिन्न को भिन्न और वस्तुकृत विच्छिन्न को अनेक कहा जाता है। काल से अविच्छिन्न को नित्य, देश से अविच्छिन्न को अभिन्न और वस्तुकृत अविच्छिन्न को एक कहा जाता है। इस प्रकार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसमें सभी दृष्टियों का सामवेश सहज रीति से हो जाता है। 14 द्रव्यार्थिक- प्रदेशार्थिक द्रव्य और पर्याय दृष्टि से जिस प्रकार वस्तु को देखा जाता है, उसी प्रकार द्रव्य और प्रदेश की दृष्टि से भी देखा जा सकता है। यहाँ स्वयं में द्रव्यदृष्टि, पर्यायदृष्टि, प्रदेशदृष्टि और दृष्टिविरोधी धर्मों का समन्वय बतलाया है। भगवती में पर्यायदृष्टि से भिन्न एक प्रदेश दृष्टि को भी माना है परन्तु यहाँ उन्होंने प्रदेश दृष्टि का उपयोग आत्मा के अक्षय, अव्यय और अवस्थित धर्मों के प्रकाशन में किया है, क्योंकि पुद्गल प्रदेशों की तरह आत्म-प्रदेशों में कभी न्यूनाधिकता नहीं होती। इसी दृष्टि को सामने रखकर प्रदेश दृष्टि से आत्मा का अव्यय आदि रूप से उन्होंने वर्णन किया है। प्रदेशार्थिक दृष्टि का एक दूसरा भी उपयोग है । द्रव्यदृष्टि से एक वस्तु में एकता ही होती है, किन्तु उसी वस्तु की अनेकता प्रदेशार्थिक दृष्टि से कही जा सकती है। कारण कि प्रदेशों की संख्या अनेक होती है। प्रज्ञापना में द्रव्यदृष्टि से धर्मास्तिकाय को एक कहा और उसी को प्रदेशार्थिक दृष्टि से असंख्यातगुणा भी बताया। 15 तुल्यता- अतुल्यता तुल्यता- अतुल्यता का प्रतिपादन भी प्रदेशार्थिक और द्रव्यार्थिक दृष्टि से किया गया है। तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only 7 www.jainelibrary.org

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