Book Title: Tulsi Prajna 2003 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 28
________________ जलाया जाता था। दाहकर्म करने के पश्चात् उसके ऊपर चैत्य अथवा स्तूप बनवाने की परम्परा थी। बृहदकल्पभाष्य टीका में अनाथ मृतक की हड्डियों को घड़े में रखकर गंगा में प्रवाहित किये जाने का उल्लेख मिलता है। महानिशीथ नामक ग्रन्थ में यह भी वर्णन है कि शव को पशु-पक्षियों के भक्षणार्थ जंगल में रख दिया जाता था । औपपातिक सूत्र में वर्णित है कि लोग अपनी पीठ अथवा पेट पर अलक्तक का लेपकर स्वयं को गिद्धों को खिला देते थे । मुर्दों को गाड़ देने की परम्परा थी । आचारांगचूर्णि, निशीथसूत्र और निशीथभाष्य के प्रमाणानुसार यह परम्परा यवन देशों में प्रचलित थी । जैन श्रमणों के निहर्ण (अन्त्येष्टि ) क्रिया का विस्तृत उल्लेख छेदसूत्रों में मिलता है। इस प्रकार जैन आगम साहित्य में वर्णित अन्त्येष्टि लोक में प्रचलित विविध मृतक क्रियाओं का निदर्शन करती है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जैन आगमों में वर्णित संस्कार न केवल स्मृतियों में उल्लिखित संस्कारों को परिपुष्ट करते हैं बल्कि उनकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म व्यावहारिक गतिविधियों का भी चित्रण करते हैं, जो कि तात्कालीन समाज में प्रचलित थी । जैन आगमों में वर्णित संस्कारों का दूसरा वैशिष्ट्य है उनकी सर्वव्यापकता । ये आगम श्रमण संस्कृति के साथ-साथ अन्यान्य सम्प्रदायों तथा देश-देशान्तरों के भी सजातीय संस्कारों का दृष्टान्त सहित विवरण प्रस्तुत करते हैं। जिससे उन संस्कारों का ऐतिहासिक क्रमिक विकास समझ में आ जाता है । यद्यपि इस लघु आलेख में समस्त संस्कारों का सांगोपांग विवरण नहीं हो पाया है। फिर भी जैन आगमों का संस्कार सम्बन्धी वैशिष्ट्य रेखांकित हो जाता है, विशेषकर शैशव से जुड़े संस्कार तो आज भी अत्यन्त प्रासांगिक प्रतीत होते हैं । तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2003 Jain Education International द्वारा प्रो. राजेन्द्र मिश्र कुलपति सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी (उत्तरप्रदेश) For Private & Personal Use Only 27 www.jainelibrary.org

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