Book Title: Tulsi Prajna 2003 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 30
________________ 6. अग्नि का स्वरूप जैन दर्शन में तेउकाय (अग्नि) के जीव जैन दर्शन के अनुसार पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेउकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक- ये छह प्रकार के जीव होते हैं । आचारांग', दशवैकालिक प्रज्ञापना आदि में इनका विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। तेउकायिक जीव वे जीव हैं जिनका शरीर अग्नि के रूप में होता है। आचारांग सूत्र में तेउकायिक जीवों के अस्तित्व को दृढ़तापूर्वक स्वीकार करते हुए बताया गया है - "जो अग्निकायिक जीव-लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। 65 सूक्ष्म तेउकायिक जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं तथा सूक्ष्मता के कारण अप्रतिहत होते हैं । बाहर तेउकायिक जीव के भिन्न-भिन्न प्रकारों का वर्णन यत्किञ्चित् भिन्नता के साथ मिलता है। दशवैकालिक सूत्र में उसके आठ प्रकार बतलाए हैं - 1. अग्नि, 2. अंगारे, 3. मुर्मुर 4. अर्चि, 5. ज्वाला 6. अलात 7. शुद्धाग्नि 8. उल्का । प्रज्ञापना सूत्र में उसके 12 भेद मिलते हैं -1. अंगारे 2. ज्वाला 3. मुर्मुर 4. अर्चि 5. अलात 6. शुद्धाग्नि 7. उल्का 8. विद्युत् 9. अशनि 10. निर्घात 11. संघर्ष समुत्थित 12. सूर्यकांतमणि निसृत । दशवैकालिक सूत्र के व्याख्या ग्रंथों के आधार पर आचार्य महाप्रज्ञ ने इनके अर्थ इस प्रकार किए हैं(1) अग्नि (अगणिं) - लोह-पिंड में प्रविष्ट स्पर्शग्राह्य तेजस् को अग्नि कहते हैं। (2) अंगारे (इंगालं)- ज्वालारहित कोयले को अंगार कहते हैं। लकड़ी का जलता हुआ धूम-रहित खण्ड। (3) मुर्मुर (मुम्मुरं)- कड़े या करसी की आग, तुषाग्नि–चोकर या भूसी की आग, क्षारादिगत अग्नि को मुर्मुर कहते हैं। भस्म के विरल अग्नि कण मुर्मुर हैं। (4) अर्चि (अच्चिं)- मूल अग्नि से विच्छिन्न ज्वाला, आकाशानुगत परिच्छिन्न अग्निशिखा, दीपशिखा के अग्रभाग को अर्चि कहते हैं। (5) ज्वाला (जालं) – प्रदीप्ताग्नि से प्रतिबद्ध अग्निशिखा को ज्वाला कहते (6) अलात (अलायं) - अधजली लकड़ी (7) शुद्ध अग्नि (सुद्धागणिं)- ईंधन रहित अग्नि (8) उल्का (उक्कं)- गगनाग्नि-विद्युत् आदि। तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2003 L - 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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