Book Title: Tulsi Prajna 1994 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 17
________________ कर उन्हें बड़ा दुःख हुआ तथा कुछ नया करने की इच्छा अन्दर से जागृत हुई। अतः वह भीलवाड़ा पहुंच कर कठोर साधना में लग गए। दस वर्ष तक निर्गुण ब्रह्म की उपासना की । सन्त रामचरण का मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं था, अत: भीलवाड़ा की जनता के विरोध करने पर उन्होंने भीलवाड़ा छोड़ दिया। वे कुहाड़ा होते हुए शाहपुरा पहुंचे। यहीं पर अपने जीवन का शेष समय बिताते हुए सन्त रामचरण १७९८ ई० की वैशाख कृष्णा ५, गुरुवार को स्वर्गवासी हुए । सन्त रामचरणजी एवं सन्त भीखणजी __ मुनि बुद्धमल्ल ने तेरापन्थ के इतिहास में रामचरणजी को सन्त भीखणजी का समकालीन एवं बालसखा के रूप में चित्रित किया है। यह सन्दर्भ रामस्नेही सम्प्रदाय के साहित्य में भी प्राप्त होता है। नवीनतम साक्ष्य स्वामी रामनिवास, रामद्वारा, बाडमेर के द्वारा प्राप्त हुआ है। इस सन्दर्भ में कहा गया है कि तेरापन्थ के नवम आचार्यश्री तुलसी से उनकी भेंट हुई तो उन्होंने बताया कि दोनों ही महान् पुरुष बचपन से ही मित्र थे। बाल्यावस्था से ही दोनों मित्र वैराग्य की बातें करते थे। यह सम्पर्क इन दोनों बालकों को सोढ़ा ग्राम में ही हुआ था जहां ननिहाल होने के कारण रामकिशन आते थे और अपनी बुआ का ससुराल होने के कारण भीखण का यहां आना होता था। रामकिशन भीखणजी से साढ़े छः वर्ष बड़े थे, परन्तु एक से ही विचारों के कारण दोनों में मित्रता हुई एवं कालांतर में प्रगाढ़ता बढ़ती गई। यहां तक कहा जाता है कि दोनों ने साथ-साथ तथा एक ही गुरु से दीक्षा लेने का निर्णय भी किया था।" मुनि मिश्रीमल के अनुसार भीखणजी ने वचन को तोड़ते हुए अकेले ही पहले संन्यास ले लिया। इस घटना को सुनकर रामकिशन उलाहना देने के लिए सोजत जहां कि भीखण अपने गुरु के साथ ठहरे हुए थे, भी आए व अपनी नाराजगी व्यक्त की। परन्तु केवलरामजी स्वामी के अनुसार यह तथ्य सही नहीं है। क्योंकि रामस्नेही सम्प्रदाय के रिकार्ड के अनुसार रामकिशनजी पहले दीक्षित हुए व भीखणजी बाद में । रामकिशन भाद्र सुदि ७, संवत् १८०८ को तारक मन्त्र प्राप्त करते हैं जबकि भीखणजी मार्गशीर्ष कृष्ण १२, संवत् १८०८ को मुनि दीक्षा लेते हैं।" ऐसा लगता है कि सन्त रामचरणजी के चिन्तन एवं व्यवहार पर जैन आचारविचार का पर्याप्त प्रभाव पड़ा। कई तत्त्व इस दृष्टि से हमारे सामने हैं-यथा, जैन मुनियों के समान रामस्नेही साधु भी रात्रि भोजन नहीं करते। पीने के पानी के बारे में भी ये साधु जैन मुनियों के समान सावधानी रखते हैं व बिना छना पानी नहीं पीते। चलते समय मुनियों के समान ही अतिरिक्त सावधानी रखकर चलते हैं जिससे कोई जीव न मर जाय । भिक्षा द्वारा ही आहार प्राप्त करते हैं, आदि आदि । साहित्य के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि जैन सम्पर्क का प्रभाव रामचरणजी पर था। प्रसिद्ध ग्रंथ "स्वामी रामचरणजी की अनभैवाणी" में यह सन्दर्भ द्रष्टव्य है "सोही तेरापन्थ का, मेरा कहै न कोय । __ मैं मेरी से लगि रह्यो, तो जगत पन्थ है सोय ॥ १८॥ १६० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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