Book Title: Tulsi Prajna 1994 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 54
________________ ध्यान-द्वात्रिंशिका--एक परिचय समणी चैतन्यप्रज्ञा आचार्य सिद्धसेन दिवाकर जो विक्रम की छठी शताब्दी के उत्तरवर्ती ज्ञात होते हैं, उन्होंने लगभग ३२-३२ श्लोक परिमाण वाली बत्तीस द्वात्रिंशिकाओं की रचना की। इनमें से कुछ द्वात्रिंशिकाओं का संग्रह "द्वात्रिंशद् द्वात्रिशिका" नामक पुस्तक में देखा जा सकता है। इनके माध्यम से सिद्धसेन ने ज्ञान के क्षेत्र में कुछ नये विचार प्रस्तुत किये । ये विचार जैन परम्परा में उनके पहले न किसी ने उपस्थिति किये थे और न ही उनकी ओर किसी का ध्यान गया। "ध्यान-द्वात्रिंशिका" सिद्धसेन प्रणीत द्वात्रिशिकाओं में दसवां स्थान रखती है। इसमें विशेषतः प्राचीन अथवा आगमिक ध्यान योग का, तत्कालीन योग के साथ तुलनात्मक व समन्वयात्मक निरूपण किया गया है। दोषरहित, ज्ञानस्वरूप और अमृतत्व का संदेश देने वाले भगवान् महावीर को सर्वप्रथम नमस्कार किया गया है । तत्पश्चात् स्वल्प शब्दों में महार्थ को प्रकट करने वाली "ध्यान-द्वात्रिंशिका" का प्रारंभ होता है । यद्यपि श्लोक संख्या ३४ है तथापि 'द्वात्रिंशिका' शब्द (नाम) का प्रयोग तत्कालीन शब्द विशेष के अति प्रचलन का ही सूचक प्रतीत होता है। "ध्यान-द्वात्रिंशिका' जैसा कि नाम ही सूचित करता है--ध्यान इसका मुख्य प्रतिपाद्य है । तथापि ध्यान की स्वरूप स्पष्टता ने अनेक ऐसे विषयों का भी संस्पर्श किया है जो भारतीय चिन्तनधारा की दार्शनिक परम्परा, ज्ञान मीमांसा, कर्मवाद, निवृत्तिवाद व समन्वयकारी दृष्टिकोण की ओर संकेत करते हैं। इन सब बिन्दुओं की खोज ही प्रस्तुत लेखन की प्रेरक है। ध्यान-योग "ध्यान-द्वात्रिशिका" में संक्षिप्त पर ध्यान का पूरा दर्शन अर्थात् साधक की ध्यान की दिशा में प्रवृत्त होने हेतु उठी हुई जिज्ञासा से लेकर, अन्तिम परिणति का चित्रण हुआ है। साधक की जिज्ञासा है-"मैं क्या हूं और क्या नहीं ? मैं एक है या अनेक ?" ध्यान का केन्द्रीय तत्त्व है-आत्मा। इसकी स्वीकृति के बिना साधक साधना में प्रवृत्त नहीं हो सकता है। इस हेतु इसमें अन्य दर्शनों में आत्मा के विषय में प्रस्तुत एकान्तिक मान्यताओं का निराकरण करते हुए आत्मा की तर्क पुरस्सर खण्ड २०, अंक ३ १९७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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