Book Title: Tulsi Prajna 1994 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 106
________________ उसके चले जाने पर छवि न देखकर मान लिया कि वह उसके हृदय में प्रविष्ट हो गया। किन्तु जयोदय की नायिका चुम्बनकाल में शर्म से मुख नीचा करती है और अपने हार में पति-मुख को देखकर पुनः लज्जित होती है तथा मुख ऊंचा करती है तो पति उसे चूम लेता है। (२) नैषध (६.५०) स्रग्वासनादृष्टजनप्रसादः सत्येयमित्यद्भुतमापभूपः । क्षिप्तामदृश्यत्वमितां च मालामालोक्य तां विस्मयतेस्मबाला ॥ जयोदय (१७.२२) सदस्यदः शीलितमेव माला क्षेपात्मकं ज्ञातवतीव बाला । तच्चापलंचाप ललामसारं दृशापिलब्धुं न शशाक सारम् ।। यहां भी नैषध का नायक कल्पना में माला फेंक उसे वास्तविक मान कर और नायिका भी स्वप्निल माला को फेंककर न देख पाने से विस्मित हैं किन्तु जयोदय की नायिका स्वयंवर सभा में पहनाई माला की घटना को याद कर आते हुए पति को संकोचवश ठीक से देख ही नहीं पाती। (३) नैषध (९.१२०) गिरानुकम्पस्व दयस्व चुम्बनैः प्रसीद शूश्रृषयितुं मया कुचौ । निशेव चान्द्रस्य करोत्करस्य यन्ममत्वमेकासि नलस्य जीवितुम् ।। जयोदय (१७.४२) आप्तुं कुच हेमघट शुशोच सकोऽररं कञ्चकमुन्मुमोच । चुकूज तन्व्या मृदुबन्धनश्वाभूद्रोमराजी प्रतिबोधमृद्वा ॥ वियोग और संयोग के इम दो परिदृश्यों में नैषध नायिका अपने नायक के जीवित होने का आभास पाने को चुम्बन, कुचमर्दन तक कराने को तैयार है किन्तु जयोदय की नायिका पति द्वारा कंचुक हटाने की चेष्टा करने पर ही अरर् शब्द उच्चारित करती है और उसकी रोमावली जागृत हो जाती है । संस्कृत काव्यों में भारवि अलंकृत काव्यशैली के प्रस्तोता कवि जाने जाते हैं। टीकाकार मल्लिनाथ ने इनके काव्य को 'नारिकेलफल सम्मितं वचो'-जिस प्रकार नारियल के कठोर भाग को तोड़ने पर ही उसका रस प्राप्त होता है, उसी प्रकार पदों के भीतर प्रवेश से ही काव्यरस मिलता है-ऐसा कहा है । स्वयं भारवि का भी मानना स्फुटता न पदैरपाकृता न च न स्वीकृतमर्थगौरवम् । रचिता पृथगर्थता गिरां न च सामर्थ्यमपोहितं क्वचित् ॥ --किरात०२।२७ --कि पदों में स्फुटता, अर्थ-गौरव की स्वीकृति, शब्दों के भिन्न-भिन्न अर्थ और पदों द्वारा अभीष्ट अर्थ का प्रचोदन काव्य में होना ही चाहिए। लगता है, जयोदय में यह काव्यगत गुण पुनः उदय हुआ है। इसके अलावा महाकवि द्वारा प्रयुक्त छन्दों में यथोचित विरामादि हैं जो बहुत सुखकर प्रतीत होते हैं। फिर भी, वधिमधुरं मधु खण्ड २०, अंक ३ २४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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