Book Title: Tulsi Prajna 1994 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 107
________________ मधुरं द्राक्षमधुरा सुधाऽपि मधुरैव । तस्य तदेव हिमधुरं यस्य मनोयत्र संलग्नम् ॥ उक्ति के अनुसार हो सकता है यह काव्य सबको न भी रूचे; किन्तु कवि-कर्म तो प्रशंस्य ही कहा जाएगा । ४. जयोदय महाकाव्य का शैली वैज्ञानिक अनुशीलन - कु० आराधना जैन, श्री दिगम्बर जैन मुनिसंघ चातुर्मास सेवा समिति, गंज बासौदा ( विदिशा ) - ४६४२२१, प्रथम आवृति-सन् १९९४, मूल्य ५० /- रुपये | महाकवि भूरामल ( आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज) की काव्यकृतियों पर सन् १९७८ में महाकवि ज्ञानसागर के काव्य – एक अध्ययन - शीर्षक से डॉ० किरण टण्डन ने शोध-प्रबन्ध लिखा था जो ईस्टर्न बुक लिंकर्स, ५८२५ न्यू चन्द्रावल रोड, जवाहरनगर, दिल्ली से प्रकाशित हुआ । उसके पश्चात् सन् १९८२ में कैलाशपति पांडेय ने जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन - शीर्षक से अपना प्रबन्ध लिखकर गोरखपुर विश्वविद्यालय से पी० एच डी० उपाधि प्राप्त की । इसी प्रकार आचार्य ज्ञानसागरजी के दयोदय चम्पूकाव्य पर कु शिवा श्रमण ने सागर विश्वविद्यालय से शोधोपाधि अर्जित की और श्रीमती अलका जैन आचार्य ज्ञानसागर के साहित्य में शांतरसपरक तत्व ज्ञान शीर्षक शोधकार्य में संलग्न है जबकि कु० आराधना जैन ने जयोदय महाकाव्य पर शैली वैज्ञानिक अनुशीलन - शीर्षक से प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध लिखा है और सन् १९९१ में पी-एच० डी० प्राप्त की है । यह प्रस्तुत अनुशीलन डॉ० पांडेय के शोध कार्य के पिस्टपेषण से बचने का प्रयास है जैसा कि शोध-प्रबन्ध के निदेशक ने अपने पुरोवाक् में लिखा है 'जब मुझे पता चला किं प्रस्तुत महाकाव्य पर माननीय डॉ० के० पी० पांडेय पूर्व में ही शोध कार्य कर चुके हैं, तब मैं निराश हो गया क्योंकि जिस पारम्परिक काव्य शास्त्रीय दृष्टि से जयोदय के अनुशीलन की परिकल्पना मैंने की थी, डॉ० पांडेय ने भी उसी दृष्टि से उक्त महाकाव्य का विवेचनात्मक अध्ययन किया था । फलस्वरूप मेरे द्वारा कराया जाने वाला कार्य पिष्टपेषण मात्र था।' इस प्रकार " फिसल पड़े तो हर गंगे" - कहने की तरह यह शोध कार्य हुआ है और कु० आराधना ने महाकवि के विपुल साहित्य का परिचय, दो नवीन जानकारी, उनकी अप्रकाशित कृतियों - 'वीर शर्माभ्युदय' तथा 'संस्कृत भक्तियां' का परिचय इत्यादि द्वारा अपने शोध कार्य की उपयोगिता बढ़ाने की चेष्टा की है । डॉ० रतनचन्द्र जैन के शब्दों में- 'शैली विज्ञान साहित्य समीक्षा का भाषा विज्ञानपरक शास्त्र है ।' और उन्हीं के शब्दों में-- ' समीक्षा के क्षेत्र में इसका प्रवेश नया नया ही है !' फिर भी उन्होंने इस शोध-प्रबन्ध को आदर्श बनाने की चेष्टा नहीं की और जैसा शोध-प्रबन्ध छपा है उसे ही " बहुत सफल और उपयोगी" मान लियायह कम से कम आचार्य ज्ञानसागरजी के प्रति न्याय नहीं हुआ जिन्होंने जैन साहित्य की सिकुड़ती रसधारा को पुनः सराबोर करने के लिए अपना तनमन लगा दिया था । जयोदय- महाकाव्य में रस एवं भाव-विमर्श, अलंकार-निवेश, गुण, रीति एवं ध्वनि-विवेचन तथा छन्दोयोजना पर तो डॉ० पांडेय ने भी बहुत कुछ लिखा होगा, तुलसी प्रज्ञा २५० Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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