Book Title: Tulsi Prajna 1994 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 28
________________ कन्दकन्द के दर्शन में उपयोग की अवधारणा Oराजवीर सिंह शेखावत प्रत्येक जीव के, मुख्यतः मानव के ज्ञान, कर्म, कर्म-फल-सुख-दुःख अनुभव अर्थात् संवेदनात्मक अनुभूति और विचारों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। एक व्यक्ति का ज्ञान सदैव एक ही विषय का तथा एक जैसा नहीं होता है वह बदलता रहता है। उसे कभी शब्द का ज्ञान होता है तो कभी रूप का कभी मानसिक प्रत्ययों का तो कभी संश्लिष्ट वस्तुओं का और कभी वह यथार्थ होता है तो कभी अयथार्थ । व्यक्ति कभी शुभ कर्म करता है, कभी अशुभ और कभी शुद्ध कर्म । वह कभी सुख की अवस्था में होता है तो कभी दु.ख की अवस्था में । इसी प्रकार उसके मन में जो विचार आते रहते हैं वे सदैव एक ही विषय के, एक रूप विचार नहीं होते हैं। यहां प्रश्न उठता है कि मानव के ज्ञान, कर्म, कर्मफल, अनुभव और विचारों तथा उनके परिवर्तन का आधार क्या है ? प्रत्युत्तर में कुन्दकुन्द का मत है कि ज्ञान आदि तथा उनके परिवर्तन का आधार 'चेतना' है। पुनः प्रश्न उठता है कि चेतना कूटस्थ नित्य अर्थात् अपरिणमनशील है या परिणमनशील है ? यदि वह अपरिणमनशील है तब ज्ञान आदि में परिवर्तन अथवा बदलाव कैसे सम्भव है और यदि वह परिणमनशील है तब उसका स्वरूप क्या है ? जवाब में कहा गया है कि चेतना परिणमनशील है और चेतना की परिणमनशीलता के कारण ही ज्ञान आदि में परिवर्तन या बदलाव सम्भब है । चेतना की इस परिणमनशीलता को अर्थात् चैतन्य परिणमन को जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'उपयोग' कहा गया है । ___ 'उपयोग' अर्थात् चैतन्य परिणमन के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए कुन्दकुन्द ने उसके दो रूप बतलाए हैं.--'ज्ञान रूप चैतन्य परिणमन' और 'दर्शन रूप चैतन्य परिणमन' ।' जब चैतन्य परिणमन 'विशेष' को ग्रहण करता है तब वह 'शान रूप चैतन्य परिणमन' कहलाता है और जब 'सामान्य' को ग्रहण करता है तब वह 'दर्शन रूप चैतन्य परिणमन' कहलाता है। यहां प्रश्न उठता है कि 'विशेष' तथा 'सामान्य' से क्या तात्पर्य है ? 'सामान्य' तथा 'विशेष' से तात्पर्य द्रव्य, वस्तु या विषय के सामान्य या विशेष रूप से है या इन सबसे भिन्न किसी अन्य से संबन्धित है ? ध्यान देने की बात यह है कि कुछ विचारकों के अनुसार जब चैतन्य स्व से भिन्न किसी विषय या वस्तु को जानता है तब वह 'ज्ञान' कहलाता है और जब चैतन्य मात्र चैतन्याकार रहता है तक वह 'दर्शन' कहलाता है। किन्तु कुन्दकुन्द को ऐसा मान्य नहीं है, क्योंकि कुन्दकुन्द के अनुसार चैतन्य मात्र चैतन्याकार नहीं होता है । चैतन्य सदेव विषय सापेक्ष होता है । चैतन्य या चैतन्य परिणमन चाहे ज्ञान रूप हो या दर्शन रूप, उसका खण्ड २०, अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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