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दायित्व निर्वाह के उदग्र आकांक्षी युवाचार्य महाप्रज्ञ
महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा
माघ शुक्ला सप्तमी का उजला मध्याह्न । मर्यादा महोत्सव की भव्य सुषमा । मंच पर सैकड़ों साधु-साध्वियों की अमल धवल परिषद् । सामने हजारों-हजारों श्रावकों का विशाल समुदाय । मध्य में ऊंचे पट्ट पर आसीन तेरापंथ धर्मसंघ के नवम अधिशास्ता आचार्यश्री तुलसी । मर्यादागीत ( वार्षिक मर्यादोत्सव आया, खुशियों की झोली भर लाया ।) का संगान, मर्यादा - पत्र का वाचन और उसके बाद एक महत्त्वपूर्ण निर्णय की अप्रत्याशित घोषणा । उपस्थित जनसमूह विस्मय-विमुग्ध हो गया । क्या होगा ? यह प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया सबकी आंखों के सामने । श्रोताओं की प्रश्नायित आंखों की उत्सुकता को अधिक न बढ़ाकर गुरुदेव ने कहा मैं आज अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति करूंगा । उत्सुकता घटी नहीं, प्रत्युत सहस्रगुनी बढ़ गई । नियुक्ति होगी । किसकी ? कौन व्यक्ति इस गरिमामय उत्तराधिकार की अर्हता के लिए उचित रहेगा ? मस्तिष्क में हलचल शुरू हो गई। आचार्यवर ने अपने निर्णय को अभिव्यक्ति के बिन्दु पर पहुंचाने के स्थान पर अधिक संगोपित कर लिया और कहा वह व्यक्ति हिन्दुस्तान के किसी भी कोने में हो सकता है । कुछ श्रोता प्रतीक्षा की आकुलता को अपने भीतर समेट कर उत्कर्ण हो गए और कुछ श्रोताओं के मन की गति तीव्र हो गई । वे अपने मन से पूरे भारत में भ्रमण कर आए, किन्तु उनके नयनों में कोई एक व्यक्तित्व बिम्बित नहीं हो सका । जिज्ञासा और सन्देह के तटों के मध्य बहती हुई अनिश्चय की वाहिनी का कल्पना की नाजुक भुजाओं से पार पा लेना संभव नहीं था । इसलिए सबकी ट लगी थी गुरुदेव की शब्दमयी नौका पर, जिसके सहारे वह मचलती स्रोतस्विनी सहजता से तीर्ण हो सकती थी ।
उत्सुकता का उभार
आचार्यश्री ने उपस्थित जन समूह को विचारों की निःश्रेणी पर आरोह-अवरोह करते देखा और उस पर एक मन्द मुस्कान बिखेर दी । आखिर जब अन्तःकरण की उफनती हुई उत्सुकता तट तोड़कर आगे बढ़ने लगी तो एक दिव्यध्वनि वायुमण्डल में मुखर हो गई - मन की यह निर्लक्ष्य यात्रा आपको समाधि नहीं दे सकेगी। इस दौड़धूप को छोड़ आप सब एकाग्र हो जाएंगे, तभी रहस्य का अनावरण हो सकेगा । निर्देश मात्र की देर थी, सबके मन
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तुलसी प्रज्ञा