Book Title: Tulsi Prajna 1979 02
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 205
________________ संज्ञाएं, क्रियाएँ -विशेष नहीं-बोता जा रहा है । एक जीवन्त सूत्रकार से परिचय हुआ मेरा इस लघुपुस्तिका में। वही १६७४ और फिर एक अद्भुत कृति मेरी मेज पर--"श्रमण महावीर ।" एक जीवनी, एक काव्य, एक उपन्यास, दर्शन, साहित्य, संस्कृति । प्रथम वाक्यों यों- "जीवन जीना निसर्ग है ।" अच्छा लगा। अनुभव हुआ जैसे कोई परम कलाकार अपनी तर्क-टाँकी से किसी प्रस्तर-खण्ड को प्रतिमा में बदल रहा है । यह आयी वीरेन दा के "अनुत्तर योगी" से पहले किन्तु काफी उस-जैसी। मेज पर फिर एक अनन्य कृति है, जिसमें एक श्रमण, संस्कृत आशुकवि ने कई ब्राह्मण काव्य-चुनौतियों को झेला है और अपनी कालजयी प्रतिभा को स्थापित किया है। यह है-"तुला अतुला"/वर्ष है १९७६ । इसका प्रथम वाक्य पढ़कर ऐसा लगता है जैसे कोई महामनीषी अपनी सुकुमार अंगुलियों से जीवन के रहस्य उद्घाटित कर रहा है। लगता है जैसे कोई यातुक हौले-हौले जिन्दगी के राज उजागर कर रहा है--किसी झटके अथवा धक्के से नहीं वरन् बड़ी कोमलता से वैसे ही जैसे बिना किसी शॉक के चन्द्रतल पर एक अन्तरिक्ष यान उतरता है। इसका पहला वाक्य है--"शरीर में निवास करने वाला भगवान् है संयम और मस्तिष्क में निवास करनेवाला सद्विचार है परमात्मा।' इसे कहते हैं एक पटु नीतिकार--एक ऐसा भर्तृहरि जो जीवन को भूसी से नहीं तत्व से तोलता है। और यदि भूसी से तौलता है तो भूसी को भू-सी कर देता है। मुनिश्री की प्रतिभा अनन्य है, विदग्ध है, और है अपराजिता। फिर एक दिन यों हुआ कि भाई कमलेशजी ने दो और बहुमूल्य कृतियाँ समीक्षार्थ भेज दीं- "मन के जीते जीत"/१९७७; “मैं, मेरा मन, मेरी शान्ति"/१९७७ । पहली में "आब्जर्वेशन्स" है-सटीक, अमोघ, अचूक । इसका पहला वाक्य है-"मन का प्रश्न बहुत उलझा हुआ है ।'' इसे कहा सबने है, किन्तु विचार कहाँ, किसने और कब इतने गहरे पैठ कर किया है ? दूसरी का दूसरा वाक्य है-"क्या मन को छोड़कर "मैं" (अहम्) की व्याख्या की जा सकती है ?" सवाल गम्भीर है और इसका उत्तर कोई मनीषी ही सफलता से दे सकता है। समूची किताब अद्भुत है और कई समस्याओं का समाधान करती है। ___ जब लाडनू से लौट रहा था तो सोचा चलो मुनिश्री नथमलजी के दर्शन किये जाए' और यात्रा को सुखद-निरापद बनाया जाए/गया। कार में सामान रखा जा चुका था। वे काफी व्यस्त थे । मुनिश्री दुलहराज जी से भी भेंट हुई। मैंने उनसे एक किताब मांगी"जैन न्याय का विकास।" तुरन्त मिली। ट्रेन में उसे आद्यन्त देख गया। यह १९७७ में राजस्थान विश्वविद्यालय के जैन विद्या अनुशीलन केन्द्र द्वारा प्रकाशित हुई है । इसका प्रथम वाक्य है---"जैन दर्शन आध्यात्मिक परम्परा का दर्शन है।" मैं सोचता रहा क्या कोई ऐसा सुधी लेखक है, जो पहले वाक्य को संपूर्ण किताब की आरसी बना दे; तब मेरा ध्यान अनायास ही मुनिश्री की उन किताबों पर गया जो मेरे संग्रह में उपलब्ध हैं और मैं प्रायः सबकी प्रस्तुतियों और प्राक्कथनों के प्रथम वाक्यों को पढ़ गया। मेरा मन नाच उठा अपार उल्लास खण्ड ४, अंक ७-८

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