Book Title: Tulsi Prajna 1979 02
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 203
________________ दिल्ली / १ दिसम्बर / १९७४ / " जिणधम्म संगीति" के बाद की सुखद सुबह / शान्त, उजला आकाश / काका साहब कालेलकर का निवास / उनका ६० वाँ जन्मदिन / मुनिश्री नथमल जी की अपलक प्रतीक्षा / कई लोग हैं / अच्छा लग रहा है, तथापि प्रतीक्षा है किसी ऐसे व्यक्ति की जिसे देखा दो-एक बार है किन्तु जिसने जगह बना ली है भीतर ब्रह्माण्ड से कहीं अधिक । प्रणाम महाप्रज्ञ डा० नेमीचन्द जैन डॉ० माचवे ने काका साहब का एक रेखांकन किया है और वे उस पर उनके हस्ताक्षर ले रहे हैं । सभा हुई है । मुनिश्री नथमल जी उसमें बोले हैं। मैं निर्निमेष देख रहा हूं; चौड़ा ललाट, अचंचल नेत्र, अभीत चित्त कोई शार्दूल खड़ा है और " स्याद्वाद" पर से भ्रम की परम्परित चादर हटा रहा है । कह रहा है - " काका साहब ने जैनधर्म की जैसी सेवा की है, वैसी किसी जैन ने भी नहीं की; वे अनेकान्त मूर्ति हैं ।" चित्त पर जो तस्वीर बनी वह इस तरह कुछ थी - " एक आदमी है । कसा हुआ मन, कसा हुआ तन, कसे हुए शब्द, कसे हुए वाक्य, सब अचूक, अमोघ ।" क्योंकि इस अभागे की और निश्चय के मुट्ठी इस संक्षिप्त - सादे - सुखद समारोह से लौटते एक लाभ हुआ । भारतीय ज्ञानपीठ ने जैन सिद्धान्त कोशकार ब्र० जिनेन्द्र वर्णी के अभिनन्दन समारोह का आयोजन किया । एक कोशकार का अभिनन्दन स्वयं में चकित कर देने वाली घटना थी; खोज पल-भर के लिए केवल संकट या अनिश्चय के समय होती है, में आते ही लोग उसे बिसार देते हैं । मुनिश्री भी इस समारोह में आमन्त्रित थे । पं० दलसुख भाई मालवणिया और आद० अगरचन्द जी नाहटा भी साथ लौट रहे थे । मुनिश्री भी लौटे । कोई ऑटो से भागा कोई शॉर्टकट से । मुनिश्री अचंचल किन्तु सवेग, स्वयं में, किन्तु जागरूक | उनके पग ही मग बने । उन्होंने चलना शुरू किया और "मैंने" उनके साथ दौड़ना । दूर कुछ था नहीं । बातें करते चले तो लगा दूरी गणितीय नहीं मानसिक होती है । उस दिन सापेक्षता का एक और स्पष्ट बोध हुआ । उस दिन का वह सचल तथापि अचल सान्निध्य आज भी चित्त पर उसी जीवन्त मुद्रा में उपस्थित है और निबिड़ अन्धकार में - कभी किरण बन जाता है। सच, उस दिन ठीक ही लगा था कि मैं एक वट-बीज के साथ यात्रायित हूं । खण्ड ४, अंक ७-८ ५०३

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