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दार्शनिक और विचारक के रूप में मुनि श्री नथमल जी बहुत समय से प्रसिद्ध रहे हैं, उन्होंने अपने चिन्तन को और आगे बढ़ाया । अध्ययन भी बहुत अच्छा किया । इन दोनों विशिष्टताओं के कारण प्राचीन जैन आगमों के सम्पादन- अनुवाद और टिप्पणियां लिखने में बहुत अच्छी सफलता मिली है । इधर चिन्तन की गहराई से ध्यान में भी बहुत अच्छी प्रगति हो सकी और उनकी मौलिक चिन्तन पद्धति से अनुभव के द्वार खुले ।
मुनि श्री नथमल जी ने "मैंने कहा" नामक पुस्तक की प्रस्तुति में स्वयं लिखा है कि मैंने दर्शन की भाषा को समझा, पर कहानी की भाषा को नहीं समझा था । मैं दर्शन की सच्चाई को दर्शन की भाषा में ही प्रस्तुत करता, तब मेरे श्रोता मेरी बात सुनने से पहले ही आशंका से भर जाते, भयभीत हो जाते। उनकी आशंका इस निर्णय तक पहुंच जाती कि मुनि नथमल बोल रहे हैं, अब कुछ समझ में आने वाला नहीं है, वे सुनने की मुद्रा में ही नहीं रहते, इसलिए सचमुच उनकी समझ में नहीं आता और उनकी आशंका धारणा में बदल जातीं । लगभग दो दशक तक यह क्रम चलता रहा । मैंने नयी यात्रा शुरू की । आचार्य श्री तुलसी ने एक दिन कहा - " तुम दर्शन की भाषा को कुछ सरसता में बदलो जिससे जनता उसे समझ सके ।” मेरी नयी यात्रा शुरू हुई । मैंने दर्शन की भाषा के साथ कहानी की भाषा को जोड़ दिया । केवल कहानी की भाषा को ही नहीं जोड़ा, किन्तु दर्शन की भाषा को भी कहानी की भाषा में कहना शुरू कर दिया। थोड़े समय बाद ही कुछ ऐसा हुआ कि लोग मुझे सुनने की ही मुद्रा में बैठते हैं और दर्शन की गंभीर चर्चा प्रस्तुत करता हूं तो उसे भी कहानी के रूप में सुन लेते हैं ।
वास्तव में उनके जीवन में नये नये उन्मेष खेलते रहे हैं, पहले वे साधारण थे, बढ़ते
बढ़ते असाधारण बन गये । पहले वे कुछ ही लोगों के समझने योग्य थे, अब सबके लिए उपयोगी बन गये। पहले साम्प्रदायिक दृष्टि में आबद्ध थे, अब उससे ऊपर उठ गये । हर व्यक्ति को उनके अनुभव - ज्ञान से कुछ न कुछ नयी जानकारी और प्र ेरणा मिलती है । आगमों का कार्य और ध्यान -पद्धति का विस्तार विशेष रूप से उल्लेखनीय है । उनके साथ रहने और काम करने वाले कई मुनि भी काफी कार्यक्षम और योग्य बन सके हैं ।
यह भी बहुत महत्त्व की बात है कि उनके भाषण टेप कर लिये जाते हैं, जिससे सहज ही में अनेकों ग्रन्थ तैयार होकर प्रकाशित भी हो गये । सहयोगी मुनि श्री दुलहराज आदि ने उनके अनेक ग्रन्थों का सम्पादन कर दिया, अन्यथा वे इतने जल्दी प्रकाश में नहीं आ पाते ।
श्रद्धा,
जैन मुनियों में वे अपने ढंग के एक ही हैं । आचार्य तुलसी के साथ लम्बे समय तक रहने से उनकी प्रसिद्धि और योग्यता भी इतनी अधिक बढ़ सकी । गुरू के प्रति समर्पण भाव, निष्ठा और विनय उनकी योग्यता के विकास में बहुत बड़े कारण हैं । जिस शिष्य पर गुरु प्रसन्न हो जाये और गुरु का अन्तर हृदय से आशीर्वाद मिले, उसकी महिमा का क्या कहना । एक तो स्वयं ही योग्य एवं प्रतिभासम्पन्न, दूसरा अनुकूल वातावरण एवं सहयोग । फिर तो दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति होते देर नहीं लगती । आचार्य तुलसी ने पहले 'महाप्रज्ञ' का पद दिया और अब युवाचार्य का । वास्तव में यह सर्वथा उपयुक्त और सूझ-बूझ वाला निर्णय है । वे जैन शासन की खूब सेवा एवं प्रभावना करे, तथा आत्मोन्नति के चरम शिखर पर पहुंचेंगे । यही शुभ-कामना है ।
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तुलसी प्रज्ञा