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बोध कराया और 'नया मोड़' कार्यक्रम के माध्यम से उन जीर्ण-शीर्ण तथा रूढ़ परम्पराओं को तोड़ने का आह्वान किया। एक तीव्र ऊहापोह के बाद समाज के वे अवांछित मूल्य एक झटके के साथ टूट गए । आज महिलाएँ अनेक कुरूढ़ियों से मुक्त हो चुकी हैं । महिला संगठनों के माध्यम से उनकी शक्ति का जागरण और उपयोग हो रहा है। इससे और कुछ हुआ या नहीं, पर महिलाओं का हौसला बढ़ा है। उनकी स्थिति मजबूत हुई है और वे कुछ क्षेत्रों में पुरुषों का पथ-दर्शन कर सकने की क्षमता अर्पित कर चुकी हैं। इस स्थिति के निर्माण में यद्यपि युगीन परिस्थितियों का भी प्रभाव रहा है, किन्तु सामाजिक मानदण्डों को बदलने में आचार्यश्री के प्रयत्न ही शीर्षस्थानीय बनकर ठहरते हैं।
युवा-शक्ति का आयोजन
युवक शक्ति का प्रतीक होता है। युवा-शक्ति का समुचित उपयोग हो तो देश और समाज का नक्शा ही बदल सकता है । शक्ति दो प्रकार की होती है-रचनात्मक और ध्वंसात्मक । ध्वंस की बात बहुत सरल है, जबकि रचनात्मक कार्य के लिए साधना की अपेक्षा रहती है । युवापीढ़ी को सही नियोजक मिल जाए तो वह समाज का काया-कल्प कर सकता है। आचार्यश्री तुलसी की नियोजन-क्षमता बेजोड़ है। आपने धार्मिक आस्था से भटके हुए युवकों को एक दिशा दी है, गति दी है और दिया है अनुकूल मोड़। वर्षों से उपेक्षित युवा-पीढी आचार्यश्री की प्रेरणा पाकर अपने दायित्व के प्रति सजग हो गई है। युवक सम्मेलनों में सैकड़ों-सैकड़ों प्रबुद्ध युवकों की उपस्थिति इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि धर्म के प्रति उनकी धारणाएँ बदली हैं। नैतिक मूल्यों के प्रति उनका दृष्टिकोण अधिक उदार बना है। अध्यात्म की चर्चा और उसके प्रयोग में उन्हें रसानुभूति होती है। वे भौतिकता के एकांगी विकास के दुष्परिणामों से संत्रस्त होकर चारित्रिक मूल्यों को समाज में प्रतिष्ठा देना चाहते हैं। उनके इस परिवर्तन का प्रमुख कारण है रूढ़ परम्परावादी धर्म की आधुनिक सन्दर्भो में प्रस्तुति । आचार्यश्री ने तेरापन्थ की मौलिक चिन्तनधारा को जिस रूप में विश्लेषित किया है, कोई भी चिन्तनशील व्यक्ति उससे आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सकता। आपने धर्म को धर्म-स्थानों और धर्मग्रन्थों की परिधि से मुक्त कर जीवन-व्यवहार में उसके प्रयोग पर बल दिया। स्वर्ग के प्रलोभन और नरक के भय से मुक्त होकर जो धर्माचरण किया जाता है, वही व्यक्ति का आलम्बन बन सकता है। इसके अतिरिक्त आचार्यश्री की हर प्रवृत्ति में तारुण्य की अमिट झलक है, उसने भी युवापीढ़ी को झकझोरा है। युवा साधु-साध्वियों की यह प्रवर्धमान संख्या इस तथ्य का स्वयंभू साक्ष्य है।
नई और पुरानी विचारधाराओं में सामञ्जस्य
वैचारिक संघर्ष की दृष्टि से पिछले कुछ दशकों का समय काफी विवादास्पद रहा । युवा और बुर्जुआ पीढ़ी के बीच विचार-भेद अस्वाभाविक नहीं है, किन्तु जिस समय वह विवाद का विषय बन जाता है, संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। तेरापन्थ धर्मसंघ में भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ है । परम्परावादी लोग प्राचीन धारणाओं के व्यामोह में फँसकर नए मूल्यों को सर्वथा नकार रहे थे और नई पीढ़ी के प्रतिनिधि रूढ़ धारणाओं में संशोधन
खण्ड ४, अंक ७-८
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