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१६. कर्म अघाति चिहुं खायक निपन, ते इक इक आश्री पूछिद ।
छ में जीव नव में जीव छै, केइ गणी एम कर्थिद ॥ २०. अघाति चिहं खायक निपन ते, केइ कहे एक जीव ताय ।
केइ जीव ने मोख कहे, बेहूं नय वचन जणाय ।। चार अघाती कर्मों (वेदनीय, नाम, गोत्र, आयु) के क्षय-निष्पन्न के संबंध में पृथक्पृथक रूप से एक-एक कर्म की पृच्छा की जाये तो वह छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में भी एक जीव है । ऐसी कुछ आचार्यों की मान्यता है।
___ कई आचार्य चार अघाती कर्मों के क्षय-निष्पन्न को छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और मोक्ष कहते हैं। उक्त आचार्यों का कथन पृथक्-पृथक् नय की अपेक्षा से है, ऐसा प्रतीत होता है।
सोरठा
२१. खायक निपन गुणखाण रे, आख्यो अधिक उमंग सू।
खयोपशम निपन जाण रे, अभिलाषा कहिवा तणी ।। गुणोत्पादक क्षय-निष्पन्न का परम उमंग से उल्लेख कर दिया गया। अब क्षयोपशमनिष्पन्न को अभिव्यक्त करने की इच्छा हो रही है।
ढाल २२. ज्ञानावरणी खयोपशम निपन ते, छव में जीव नव में दोय॥
चउनाण अनाण भणवो कहयो जीव निर्जरा जोय ।। ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और निर्जरा हैं । इससे आठ बोल-चार ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव), तीन अज्ञान (मति, श्रुत, विभंग) और भणन-गुणन की प्राप्ति होती है।
२३. दर्शणावरणो क्षयोपशम निपन ते, छ में जीव सुचीन ।
नव में दोय जीव निर्जरा, इन्द्रिय दर्शण तीन ॥ दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और निर्जरा हैं। इससे आठ बोल–पाँच इन्द्रियाँ (स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्ष , श्रोत्र) और तीन दर्शन (चक्ष , अचक्ष , अवधि) उपलब्ध होते हैं। .
२४. मोहणी क्षयोपशम निपन ते, छ में जीव सू इष्ट ।
नव में जीव संवर निर्जरा, चिहुं चरण देशव्रत दृष्ट ॥ मोहनीय कर्म का क्षयोपशम-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में तीन-जीव, संवर और निर्जरा हैं। इससे आठ बोल-चार चारित्र (सामायिक, छेदोपस्थाप्य, परिहारविशुद्धि सूक्ष्मसंपराय) एक देशवत (श्रावक व्रत) और तीन दृष्टि (सम्यग् दृष्टि, मिथ्याष्टि, सम्यमिथ्या दृष्टि) प्राप्त होते हैं।
२५. अंतराय क्षयोपशम निपन ते, छ में जीव सुचीन ।
नव में दोय जीव निर्जरा, पांच लब्ध वीरज तीन । अंतराय कर्म का क्षयोपशम-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में
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लण्ड ४, अंक ७-८