Book Title: Tattvopapplavasinha
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 4
________________ 3 कहना होगा कि यह भट्ट विशेषण जयराशिकी ब्राह्मण सांप्रदायिकता का ही योतक होना चाहिए । । इसके सिवा, जयराशिके पिता-माता या गुरु-शिष्य इत्यादिके संबन्ध में कुछ भी पता नहीं चलता । फिर भी जयराशिका बौद्धिक मन्तव्य क्या था यह बात इसके प्रस्तुत ग्रन्थ से स्पष्ट जानी जा सकती है । जयराशि एक तरह से बृहस्पतिके चार्वाक संप्रदायका अनुगामी है; फिर भी वह चार्वाकके सिद्धान्तोंको अक्षरशः नहीं मानता। चार्वाक सिद्धान्त में पृथ्वी आदि चार भूतोंका तथा मुख्य रूपसे प्रत्यक्ष विशिष्ट प्रमाणका स्थान है पर जयराशि न प्रत्यक्ष प्रमाणको ही मानता है और न भूत तत्त्वोंको ही । तब भी वह अपनेको चार्वाकानुयायी जरूर मानता है । अतएव ग्रन्थके आरम्भ में ही बृहस्पति के मन्तव्य के साथ अपने मन्तव्यकी आनेवाली संगतिका उसने तर्कशुद्ध परिहार भी किया है । उसने अपने मन्तव्य के बारेमें प्रश्न उठाया है, कि बृहस्पति जब चार तत्वों का प्रतिपादन करता है, तब तुम ( जयराशि ) तत्त्वमात्रका खण्डन कैसे करते हो ? अर्थात् बृहस्पतिकी परम्परा के अनुयायीरूपसे कम से कम चार तत्त्व तो तुम्हें अवश्य मानने ही चाहिए । इस प्रश्नका जबाब देते हुए जयराशिने t पनेको बृहस्पतिका अनुयायी भी सूचित किया है और साथ ही बृहस्पति से एक कदम श्रागे बढ़नेवाला भी बतलाया है । वह कहता है कि बृहस्पति जो अपने सूत्रमें चार तत्वों को गिनाता है, वे इसलिए नहीं कि वह खुद उन तत्वों को मानता है । सूत्रमें चार तत्त्वोंके गिनाने अथवा तत्त्वोंके व्याख्यानकी प्रतिज्ञा करनेसे बृहस्पतिका मतलब सिर्फ लोकप्रसिद्ध तत्त्वों का निर्देश करना मात्र है । ऐसा करके बृहस्पति यह सूचित करता है, कि साधारण लोक में प्रसिद्ध और माने जानेवाले पृथ्वी आदि चार तत्त्व भी जब सिद्ध हो नहीं सकते, तो फिर श्रप्रसिद्ध और श्रतीन्द्रिय आत्मा आदि तत्त्वों की तो बात ही क्या ? बृहस्पति के कुछ सूत्रोंका उल्लेख करके और उसके श्राशय के साथ अपने नए प्रस्थानकी श्रानेवाली संगतिका परिहार करके जयराशिने भारत वर्षीय प्राचीन गुरुशिष्य भावकी प्रणालीका ही परिचय दिया है । भारतवर्ष के किसी भी संप्रदाय १. 'ननु यदि उपप्लवस्तत्वानां किमाया....; श्रथातस्तत्त्वं व्याख्यास्यामः ' ; 'पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि, तत्समुदाये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा इत्यादि १ न श्रन्यार्थस्वात् । किमर्थम् १ प्रतिबिम्बनार्थम् । किं पुनरत्र प्रतिबिम्ब्यते ? पृथिव्यादीनि तत्त्वानि लोके प्रसिद्धानि तान्यपि विचार्यमाणानि न व्यवतिष्ठन्ते, किं पुनरन्यानि ?' -- तत्वो० पृ० १, पं० १० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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