Book Title: Tattvopapplavasinha Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 9
________________ तो ऐसा मानना होगा कि जयराशिने शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहको जरूर देखा था । शान्तरजितका जीवन-काल इतना अधिक विस्तृत है कि वह प्रायः पूरी एक शताब्दीको व्याप्त कर लेता है। शान्तरक्षितका समय ई० स० की आठवीं-नवीं शताब्दी है। इस बातसे भी जयराशिके समय संबन्धी हमारे उक्त अनुमानकी पुष्टि होती है। दस-बीस वर्ष इधर या उधर; पर समय संबन्धी उपर्युक्त अनुमानमें विशेष अन्तर पड़नेकी संभावना बहुत ही कम है। जयराशिकी पाण्डित्यविषयक योग्यताके विषयमें विचार करनेका साधन, तत्वोपप्लवके सिवाय, हमारे सामने और कुछ भी नहीं है । तत्त्वोपप्लवमें एक जगह लक्षणसार' नामक ग्रन्थका निर्देश है जो जयराशिकी ही कृति जान पड़ती है; परन्तु वह ग्रन्थ अभी तक कहीं उपलब्ध नहीं है | जयराशिकी अन्य कृतियोंके बारेमें और कोई प्रमाण नहीं मिला है। परन्तु प्रस्तुत तस्वोपप्लवकी पाण्डित्यपूर्ण एवं बहुश्रुत चर्चाओंको देखनेसे ऐसा माननेका मन हो जाता है कि जयराशिने और भी कुछ ग्रन्थ अवश्य लिखे होंगे | जयराशि दार्शनिक है फिर भी उसके केवल वैयाकरणसुलभ कुछ प्रयोगोंको देख कर यह मानना पड़ता है कि वह वैयाकरण जरूर था। उसकी दार्शनिक लेखन-शैलीमें भी जहाँ-तहाँ श्रालंकारिकसुलभ व्यङ्गोक्तियाँ और मधुर कटाक्षोंकी भी कहीं-कहीं छटा है । । इससे उसके एक अच्छे प्रालंकारिक होने में भी बहुत सन्देह नहीं रहता । जयराशि वैयाकरण या आलंकारिक हो~~ या न हो, पर वह दार्श १. 'अव्यपदेश्यपदं च यथा न साधीयः तथा लक्षणसारे द्रष्टव्यम् ।'तत्वो० पृ० २० । २. 'जेगीयते'-पृ० २६, ४१ । 'जाघटीति' पृ० २७,७६ इत्यादि । ३. 'शृण्वन्तु अमी बाललपितं विपश्चितः १ -पृ. ५ । 'अहो राजाज्ञा गरीयसी नैयायिकपशोः !'-पृ० ६। 'तदेतन्महासुभाषितम् ?'-पृ० ६ । 'न जातु जानते जनाः ।'-पृ०८। 'मरीचयः प्रतिभान्ति देवानांप्रियस्या' -पृ० १२ । 'अहो राजाज्ञा नैयायिकपशोः -पृ० १४ । 'तथापि विद्यमानयोर्बाध्यबाधकभावो भूपालयोरिव'-पृ० १५ । 'सोयं गडप्रवेशाक्षितारकविनिर्गमन्यायोपनिपातः श्रुतिलालसानां दुरुत्तरः।'-पृ० २३ । 'बालविलसितम्' -पृ० २६ । 'जडचेष्टितम्'-पृ० ३२ । 'तदिदं मद्विकल्पान्दोलितबुद्धः निरुपपत्तिकाभिधानम्-पृ० ३३ । 'वर्तमानव्यवहारविरहः स्यात्-पृ० ३७ । 'जड़मतयः' पृ० ५६ । 'सुस्थितं नित्यत्वम्' पृ. ७६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31