Book Title: Tattvopapplavasinha
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 15
________________ इच्छासेकी जाती है । इसका प्रेरक आन्तरिक तत्व केवल विजयेच्छा है । वितण्डा कथा भी विजयेच्छासे ही की जाती है । इस तरह जल्प और वितण्डा दो तो विजयेच्छाजनित हैं और बाद तत्त्वबोधेच्छाजनित | विजये - च्छाजनित होने पर भी जल्प और वितएडामें एक अन्तर है, और वह यह कि जल्पकथा में वादी प्रतिवादी दोनों अपना-अपना पक्ष रखकर अपने-अपने पक्षका स्थापन करते हुए, विरोधी पक्षका खण्डन करते हैं। जब कि वितण्डा कथा में यह बात नहीं होती । उसमें अपने पक्षका स्थापन किये बिना ही प्रतिपका खण्डन करनेकी एकमात्र दृष्टि रहती है । By यहाँ पर ऐतिहासिक तथा विकास क्रमकी दृष्टिसे यह कहना उचित होगा कि ऊपर जो कथाके तीन प्रकारोंका तथा उनके पारस्परिक अन्तरका शास्त्रीय सूचन किया है, वह विविध विषयके विद्वानोंमें अनेक सदियोंसे चली आती हुई चर्चाका तर्कशुद्ध परिणाम मात्र है । बहुत पुराने समयकी चर्चाओ में अनेक जुदी - जुदी पद्धतियोंका बीज निहित है । वार्तालापकी पद्धति, जिसे संवादपद्धति भी कहते हैं, प्रश्नोत्तरपद्धति और कथापद्धति - ये सभी प्राचीन काल की चर्चा I कभी शुद्ध रूपसे तो कभी मिश्रित रूपसे चलती थीं । कथापद्धतिवाली चर्चा में भी वाद, जल्प श्रादि कथाओं का मिश्रण हो जाता था । जैसे-जैसे अनुभव बढ़ता गया और एक पद्धतिमें दूसरी पद्धति के मिश्रणसे, और खासकर एक कथामें दूसरी कथाके मिश्रणसे, कथाकालमें तथा उसके परिणाममें नानाविध सामञ्जस्यका अनुभव होता गया, वैसे-वैसे कुशल विद्वानोंने कथा के भेदोंका स्पष्ट विभाजन करना भी शुरू कर दिया; और इसके साथ ही साथ उन्होंने हरएक कथा के लिए, अधिकारी, प्रयोजन, नियम - उपनियम श्रादिकी मर्यादा भी बाँधनी शुरू की। इसका स्पष्ट निर्देश हम सबसे पहले अक्षपाद के सूत्रों में देखते हैं । कथाका यह शास्त्रीय निरूपण इसके बादके समग्र वाङ्मयमें आजतक सुस्थिर है । यद्यपि बीच-बीच में बौद्ध और जैन तार्किकोने, अक्षपा दकी बतलाई हुई कथासंबन्धी मर्यादाका विरोध और परिहास करके, अपनीअपनी कुछ भिन्न प्रणाली भी स्थापित की है; फिर भी सामान्य रूपसे देखा जाए तो सभी दार्शनिक परम्पराओं में अक्षपादकी बतलाई हुई कथापद्धतिकी मर्यादाका ही प्रभुत्व बना हुआ है । (इ) व्याकरण, अलंकार, ज्योतिष, वैद्यक, छन्द र संगीत श्रादि अनेक ऐसे विषय हैं जिनपर चर्चात्मक संस्कृत साहित्य काफी तादाद में बना C फिर भी हम देखते हैं कि वितण्डा कथा के प्रवेश और विकासका केन्द्र तो केवल दार्शनिक साहित्य ही रहा है । इस अन्तरका कारण, • विषयका स्वाभा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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