Book Title: Tattvopapplavasinha
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 17
________________ ६५ होने लगा और उसकी कुछ प्रतिष्ठा भी अधिक बढ़ने लगी। खुल्लमखुल्ला उन लोगों की पूजा और प्रतिष्ठा होने लगी जो 'येन केन प्रकारेण' प्रतिवादीको हरा सकते थे एवं हराते थे । अब सभी संप्रदायवादियोंको फिक्र होने लगी, कि किसी भी तरह से अपने - अपने सम्प्रदाय के मंतव्योंकी विरोधी सांप्रदायिकों से रक्षा करनी चाहिए । सामान्य मनुष्य में विजयकी तथा लाभख्याति की इच्छा साहजिकही होती है। फिर उसको बढते हुए संकुचित सांप्रदायिक भावका सहारा मिल जाए, तो फिर कहना ही क्या ? जहाँ देखो वहाँ विद्या पढने - पढानेका, तत्व चर्चा करनेका प्रतिष्ठित लक्ष्य यह समझा जाने लगा, कि जल्प कथासे नहीं तो अन्तमें वितण्डा कथासे ही सही, पर प्रतिवादीका मुख बंद किया जाए और अपने सांप्रदायिक निश्चयोंकी रक्षा की जाय | चन्द्रगुप्त और अशोक के समय से लेकर आगे के साहित्य में हम जल्प श्रौरी वितण्डाक तत्व पहले की अपेक्षा कुछ अधिक स्पष्ट पाते हैं। ईसाकी दूसरी तीसर शताब्दी के माने जानेवाले नागार्जुन और अक्षपादकी कृतियाँ हमारे इस कथनकी साक्षी हैं । नागार्जुनकी कृति विग्रहव्यावर्तिनी को लीजिए या माध्यमिकका - रिकाको लीजिए और ध्यानसे उनका अवलोकन कीजिए, तो पता चल जाएगा कि दार्शनिक चिन्तनमें बादकी श्राडमें, या वादका दामन पकड़कर उसके पीछेपीछे, जल्प और वितण्डाका प्रवेश किस कदर होने लग गया था। हम यह तो निर्णयपूर्वक कभी कह नहीं सकते कि नागार्जुन सत्य - जिज्ञासासे प्रेरित था ही नहीं, और उसकी कथा सर्वथा वादकोटिसे बाह्य है; पर इतना तो हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि नागार्जुनकी समग्र शैली, जल्प और वितण्डा कथा इतनी नजदीक है कि उसकी शैलीका साधारण अभ्यासी, बड़ी सरलतासे, जल्प और वितण्डा कथाकी ओर लुढ़क सकता है । अक्षपादने अपने प्रतिमहत्त्वपूर्ण सूत्रात्मक संग्रह प्रथमें बाद, जल्प और वितरडाका, केवल अलग-अलग लक्षण ही नहीं बतलाया है बल्कि उन कथानों के अधिकारी, प्रयोजन आदि की पूरी मर्यादा भी सूचित की है। निःसंदेह अक्षपादने अपने सूत्रोंमें जो कुछ कहा है और जो कुछ स्पष्टीकरण किया है, वह केवल उनकी कल्पना या केवल अपने समयकी स्थितिका चित्रण मात्र ही नहीं है, बल्कि उनका यह निरूपण, अतिपूर्वकाल से चली नाती हुई दार्शनिक विद्वानोंकी मान्यताओंका तथा विद्याके क्षेत्र में विचरनेवालोंकी मनोदशाका जीवित प्रतिबिम्ब है । निःसंदेह अक्षपादकी दृष्टि में वास्तविक महत्व तो 'वादकथा' का ही है, फिर भी वह स्पष्टता तथा बलपूर्वक, यह भी मान्यता प्रकट करता है कि केवल Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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