Book Title: Tattvopapplavasinha
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 18
________________ 'जल्प' ही नहीं बल्कि 'वितण्डा' तकका भी आश्रय लेकर अपने तत्त्वज्ञानकी तथा अपने सम्प्रदायके मंतव्योंकी रक्षा करनी चाहिए। कांटे भले ही फेंक देने योग्य हों, फिर भी पौधोंकी रक्षाके वास्ते वे कभी-कभी बहुत उपादेय भी हैं । श्रक्षपादने इस दृष्टान्त के द्वारा 'जल्ल' और 'वितण्डा कथाका पूर्व समयसे माना जानेवाला मात्र औचित्य ही प्रकट नहीं किया है, बल्कि उसने खुद भी अपने सूत्रोंमें, कभी कभी पूर्वपक्षीको निरस्त करनेके लिए, स्पष्ट या श्रस्पष्ट रूपसे, "जल्प'का और कभी 'वितण्डा' तकका श्राश्रय लिया जान पड़ता है।' मनुष्यकी साहजिक विजयवृत्ति और उसके साथ मिली हुई सांप्रदायिक मोहवृत्ति-ये दो कारण तो दार्थनिक क्षेत्रमें थे ही, फिर उन्हें ऋषिकल्प विद्वानोंके द्वारा किये गए 'जल्य' और 'वितण्डा कथा' के प्रयोगके समर्थनका सहारा मिला, तथा कुछ असाधारण विद्वानों के द्वारा उक्त कथाकी शैलीमें लिखे गए प्रन्थोंका भी समर्थन मिला । ऐसी स्थितिमें फिर तो कहना ही क्या था १ श्रागमें घुताहुतिकी नौबत आ गई। जहाँ देखो वहाँ अकसर दार्शनिक क्षेत्रमें 'जल्प' और 'वितण्डा' का ही बोलबाला शुरू हुआ। यहाँतक कि एक बार ही नहीं बल्कि अनेक बार 'जल्प' और 'वितण्डा' कथाके प्रयोगका निषेध करनेवाले तथा उसका अनौचित्य बतलानेवाले बुद्धि एवं चरित्र प्रगल्भ ऐसे खुद बौद्ध तथा जैन तत्त्वसंस्थापक विद्वान् तथा उनके उत्तराधिकारी भी 'जल्प' और 'वितण्डा' कथाकी शैलीसे या उसके प्रयोगसे बिलकुल अछूते रह न सके । कभी-कभी तो उन्होंने यह भी कह दिया कि यद्यपि 'जल्प' और 'वितण्डा' सर्वथा वयं है तथापि परिस्थिति विशेषमें उसका भी उपयोग है।' इस तरह कथाओंके विधि-निधेषकी दृष्टिसे, या कथाश्रोंका श्राश्रय लेकर की जानेवाली ग्रन्थकारकी शैलीकी दृष्टिसे, हम देखें, तो हमें स्पष्टतया मालूम पड़ता है कि वात्स्यायन, उद्योतकर, दिङनाग,धर्मकीर्ति, सिद्धसेन, समन्तभद्र, कुमारिल, शंकराचार्य आदिकी कृतियाँ 'शुद्ध वादकथा' । के नमूने नहीं हैं। जहाँतक अपने-अपने संप्रदायका तथा उसकी अवांतर शाखाओंका संबंध है वहाँतक तो, उनकी कृतियोंमें 'वादकथा' का तत्त्व सुरक्षित है, पर जब विरोधी संप्रदायके साथ चर्चाका मौका आता है तब ऐसे १. देखो न्यायसूत्र, ४. २. ४७ । २. देखो, उ० यशोविजयजीकृत वादद्वात्रिंशिका, श्लो०, ६ अयमेव विधेयस्तत् तत्त्वज्ञेन तपस्विना। देशाद्यपेक्षायाऽन्योऽपि विज्ञाय गुरुलाघवम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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