Book Title: Tattvopapplavasinha
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 26
________________ १०४ विषय परिचय प्रस्तुत ग्रन्थमें किस-किस विषयकी चर्चा है और वह किस प्रकार की गई है इसका संक्षिप्त परिचय प्राप्त करनेके लिए नीचे लिखी बातों पर थोड़ासा प्रकाश डालना जरूरी है। (१) ग्रन्थकारका उद्देश्य और उसकी सिद्धिके वास्ते उसके द्वारा अव लंबित मार्ग | (२) किन-किन दर्शनोंके और किन-किन अाचार्यों के सम्मत प्रमाणलक्ष णोंका खण्डनीय रूपसे निर्देश है । (३) किन-किन दर्शनोंके कौन-कौनसे प्रमेयोंका प्रासंगिक खण्डनके वास्ते निर्देश है। (४) पूर्वकालीन और समकालीन किन-किन विद्वानोंकी कृतियोंसे खण्इन सामग्री ली हुई जान पड़ती है। (५) उस खण्डन-सामग्रीका अपने अभिप्रेतकी सिद्धिमें ग्रन्थकारने किस तरह उपयोग किया है। (१) हम पहले ही कह चुके हैं कि ग्रन्थकारका उद्देश्य, समग्न दर्शनोंको छोटी-बड़ी सभी मान्यताअोंका एकमात्र खण्डन करना है। ग्रन्थकारने यह सोचकर कि सब दर्शनोंके अभिमत समग्र तत्वोंका एक-एक करके खण्डन करना संभव नहीं; तब यह विचार किया होगा कि ऐसा कौन मार्ग है जिसका सरलतासे अवलम्बन हो सके और जिसके अवलम्बनसे समय तत्त्वोंका खण्डन आप-ही-श्राप सिद्ध हो जाए। इस विचारमेंसे ग्रन्थकारको अपने उद्देश्यकी सिद्धिका एक अमोघ मार्ग सूझ पड़ा, और वह यह कि अन्य सब बातकि खण्डनकी ओर मुख्य लक्ष्य न देकर केवल प्रमाणखण्डन ही किया जाए, जिससे प्रमाणके आधारसे सिद्ध किये जानेवाले अन्य सब तत्त्व या प्रमेय अपने आप ही खण्डित हो सके। जान पड़ता है ग्रन्थकारके मनमें जब यह निर्णय स्थिर बन गया तब फिर उसने सब दर्शनोंके अभिमत प्रमाणलक्षणोंके खण्डनकी तैयारी की। ग्रन्थके प्रारम्भमें ही वह अपने इस भावको स्पष्ट शब्दोंमें व्यक्त करता है । वह सभी प्रमाण प्रमेयवादी दार्शनिकोंको ललकार कर कहता है' कि-'भाप लोग जो प्रमाण और प्रमेयकी व्यवस्था मानते हैं उसका १. 'श्रथ कथं तानि न सन्ति १ तदुच्यते-सल्लक्षणनिबन्धन मानव्यवस्थानम्, माननिबन्धना च मेयस्थितिः, तदभावे तयोः सद्व्यवहारविषयत्वं कथम् १........इत्यादि । तखोपप्लव, पृ० १. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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