Book Title: Tattvopapplavasinha
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 11
________________ बौद्ध मतकी विज्ञानवादी शाखाका, खास कर धर्मकीर्ति और उसके शिष्यों के मन्तव्योंका निरसन किया है ।' उसका खण्डित वैयाकरण दर्शन महाभाष्यानुगामी ' भर्तृहरिका दर्शन जान पड़ता है । इस तरह जयराशिकी प्रधान योग्यता दार्शनिक विषयकी है और वह समग्र दर्शनोंसे संबन्ध रखती है। ग्रन्थ परिचय नाम-प्रस्तुत ग्रन्थका पूरा नाम है तत्त्वोपप्लवसिंह जो उसके प्रारंभिक पद्यमें स्पष्ट रूपसे दिया हुआ है '। यद्यपि यह प्रारम्भिक पद्य बहुत कुछ १. प्रमाणसामान्यका लक्षण, जिसका कि खण्डन जयराशिने किया है, धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्तिकमेंसे लिया गया है (-तत्त्वो० पृ० २८)। प्रत्यक्षका लक्षण भी खण्डन करनेके लिए धर्मकीर्तिके न्यायबिन्दुमेंसे ही लिया गया है ( -पृ. ३२)। इसी प्रसंगमें धर्मकीर्ति और उनके शिष्योंने जो सामान्यका खण्डन और सन्तानका समर्थन किया है-उसका खण्डन भी जयराशिने किया है। आगे चलकर जयराशिने (पृ०८३ से) धर्मकीर्ति सम्मत तीनों अनुमानका खण्डन किया है और उसी प्रसंगमें धर्मकीर्ति और उनके शिष्यों द्वारा किया गया अवयवीनिराकरण, बाह्यार्थविलोप, क्षणिकत्वस्थापन-इत्यादि विषयोंका विस्तारसे खण्डन किया है। २. अपशब्दके भाषणसे मनुष्य म्लेच्छ हो जाता है अतः साधुशब्दके प्रयोगज्ञान के लिए व्याकरण पढना श्रावश्यक है, ऐसा महाभाष्यकारका मत है'म्लेच्छा मा भूम इत्यध्येयं व्याकरणम् (-पात. महाभाष्य पृ० २२:६० गुरुप्रसादसंपादित), तथा "एवमिहापि समानायां अर्थावगतौ शब्देन चापशब्देन च धर्मनियमः क्रियते । 'शब्देनैवार्थोऽमिधेयो नापशब्देन' इति एवं क्रियमाणमभ्युदयकारिं भवतीति"-(पृ०५८) ऐसा कह करके महाभाष्यकारने साधुशब्दके प्रयोगको ही अभ्युदयकर बताया है। महाभाष्यकारके इसी मतको लक्ष्यमें रखकर भर्तृहरिने अपने वाक्यपदीयमें साधुशब्दोंके प्रयोगका समर्थन किया है और असाधशब्दोंके प्रयोगका निषेध किया है "शिष्ट भ्य भागमात् सिद्धाः साधवो धर्मसाधनम् । अर्थप्रत्यायनाभेदे विपरीतास्त्वसाधवः ॥" इत्यादि--वाक्यपदीय, १. २७, १. १४१, तथा १४६ से। जयराशिने इस मतका खण्डन किया है-पृ. १२० से । ३. देखो प० ८० का टिप्पण २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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