Book Title: Tattvasara
Author(s): Hiralal Siddhantshastri
Publisher: Satshrut Seva Sadhna Kendra

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ 12 तत्त्वसार संस्कृत या हिन्दी आदि भाषामें रचित सामयिक पाठ बोले / अन्तमें समाधिभक्ति और इष्ट प्रार्थना बोलते हुए कायोत्सर्गकर सामायिकका काल पूरा करे / यह एक दिशानिर्देश है / कभी-कभी बारह भावनाओंका चिन्तन करे / अनेक कवियोंकी रची हुई बारह भावनाएँ प्रकाशित हो गई हैं, उनका पाठ करे / इस क्रममें प्रतिदिन नवीन-पाठ अपनी रुचिके अनुसार बोला जा सकता है। उक्त सामायिककी साधना तीनों सन्ध्याओंमें और कम-से-कम दो घड़ी, या एक मुहूर्त अर्थात् 48 मिनिट तक एक आसनसे स्थिर बैठ करनी चाहिए। जब सामायिकमें स्थिरता आ जावे, तब उसी सामयिकके कालको बढ़ाकर या उक्त समयमें ही आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय रूप धर्मध्यानके चार भेदोंका चिन्तन करे। इनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है 1. आज्ञाविचय-वीतराग सर्वज्ञ जिनदेवने आत्माके प्रयोजनभूत जिन जीव आदि सात तत्त्वोंका निरूपण किया है, उनके स्वरूपका चिन्तन करना, मोक्षमार्ग-दर्शक शास्त्रोंका स्वाध्याय करना और जिन-आज्ञाको प्रमाण मानना आज्ञाविचय धर्मध्यान है। (भावसंग्रह गाथा 367) .. अपायविचय-मेरे द्वारा उपार्जित कर्म ही मुझे दुःखके देने वाले हैं, किस उपायसे मैं इन कर्मोसे छुटू, और किस उपायसे आत्मीय स्वरूपको प्राप्त करूं, ऐसा विचार करना अपायविचय धर्मध्यान है / (भाव संग्रह गाथा 368) 3. विपाकविचय-इस चतुर्गतिस्वरूप मंसारमें जीव अपने-अपने उपार्जित कर्मोंके विपाकरूप फलको भोगते हुए दुःखी हो रहे हैं। किस कर्मका क्या और कैसा फल भोगना पड़ता है ? इस प्रकार कर्मोके फलका विचार करना विपाकविचय धर्मध्यान है। (भावसंग्रह गाथा 369) 4. संस्थानविचय-ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोकके स्वरूपका चिन्तन करते हुए वह विचार करना कि इस 343 राजू घनाकार लोकमें ऐसा एक भी प्रदेश नहीं है, जहाँपर कि मैंने अनन्तवार जन्म और मरण न किया हो ? अब यह सुअवसर प्राप्त हुआ है कि जब मैं इस जन्म-मरणके चक्रसे छट सकता है। अतः मुझे अब विषय-कषायोंकी चांह-दाहसे दूर होकर आत्म-हितमें लगना चाहिए। ऐसा विचार करना संस्थानविचय धर्मध्यान है। (भावसंग्रह गाथा 370). अहिंसामयी धर्मका स्वरूप-चिन्तन करना, उत्तम क्षमादि दशधौंका विचार करना और वस्तुस्वरूपका निर्णय करना, पंचपरमेष्ठीके गुणोंका चिन्तन करना, संसार, देह और भोगोंका स्वरूप विचारते हुए उदासीन रहना, ये सभी कार्य धर्मध्यानस्वरूप ही हैं। (भावसंग्रह गाथा 372-373) ... आत्म-चिन्तन करते समय कषायोदयसे कोई आर्तध्यान इष्ट-वियोग, अनिष्टसंयोग और वेदना-जनित संकल्प-विकल्परूप प्रकट हो जाये, तो आत्मनिन्दा-गर्दा करते हुए स्वाध्याय और बारह भावनाओंके द्वारा उसे शान्त करनेका प्रयत्न करना चाहिए। तथा अपने आत्मारामको संबोधित करते हुए कहना चाहिए कि हे आत्मन् ! तुम क्या करनेके लिए बैठे थे और अब क्या विचारने लगे? अहो, आत्म-स्वरूप भूलकर और बाहिरी पदार्थों में मोहित होकर फिर राग-द्वषके चक्रमें फंस गये ? इस प्रकार अपने आपको संबोधित करते हुए पुनः ध्यानमें स्थिर होनेका प्रयत्न 1. किन्तु कर्तुं त्वयाऽरब्धं किन्तु वा क्रियतेऽधुना। आत्मन्नारब्धमुत्सृज्य हन्त बाह्येन मुह्यसे / / (आ० वादीभसिंह)

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 198