Book Title: Tattvartha Vrutti
Author(s): Bhaskarnandi, Jinmati Mata
Publisher: Panchulal Jain

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Page 10
________________ नावष्ट नाति किंचिद् गुणनिधिरिति यो बद्धपर्यंकयोगः । कृत्वासंन्यामन्ते शुभगतिरभवत्सर्वसाधुः प्रपूज्य: ॥९९।। तस्या भवच्छ तनिधिजिनचन्द्रनामा शिष्यो नु तस्य कृति भास्करनन्दि नाम्ना। शिष्येण स्तवमिमं निजभावनार्थं ध्यानानुगं विरचितं सुविदो विदन्तु ।।१०।। अर्थ:-जो न थूकता है न सोता है, न कभी दूसरे को 'सानो व जाओ' कहता है, न शरीर को खुजलाता है, न रात्रि में गमन करता है, न द्वार को खोलता है, न उसे देता है-बन्द करता है तथा न किसी का आश्रय लेता है; ऐसा वह गुणों का भण्डार स्वरूप सर्वसाधु पयंक पासन से योग ( समाधि ) में स्थित होता हुअा अन्त में संन्यास को करके-कषाय व आहार का परित्याग करके सल्लेखनापूर्वक मृत्यु को प्राप्त होकर-उत्तम गति से युक्त हुआ। इस प्रकार से वह सर्वसाधु-इस नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त मुनि अथवा सर्वश्रेष्ठ साधु-अतिशय पूजनीय हुआ। उस सर्वसाधु का जिनचन्द्र नामक शिष्य हुआ जो श्रुत का पारगामी था । उस जिनचन्द्र के पुण्यशाली भास्करनन्दि नामक शिष्य ने ध्यान के अनुकरण करने वाले-ध्यान की प्ररूपणा युक्त-इस स्तोत्र को अपनी (आत्मा को) भावना भाने के लिए रचा है, यह विद्वज्जन जानें ।' कु० सुजुको प्रोहिरा ने भास्करनन्दि का समय १२वीं शताब्दी का प्रारम्भ (ई. १११० या ११२० ) माना है ।' पण्डित शान्तिराजजी शास्त्री ने तत्त्वार्थवृत्ति की प्रस्तावना में भास्करनन्दि के समय पर विचार करते हुए उन्हें १३वीं-१४वीं शताब्दी का विद्वान् माना है।' पं० मिलापचन्द्रजी कटारिया केकड़ी कहते हैं कि प्रशस्ति के जिन श्लोकों में भास्करनंदि ने अपने प्रगुरु का नाम दिया है वह नाम अशुद्ध प्रतीत होता है, जिससे भास्करनन्दि का समय गड़बड़ हो रहा है। ऊपर ९९३ श्लोक की चरम पंक्ति में जो शुभगति शब्द है वह अशुद्ध है, उससे अर्थ की संगति नहीं बैठती। इस श्लोक में भास्करनन्दि ने अपने जिनचन्द्र गुरु के गुरु का नाम लिखा है, पर श्लोक में सर्वसाधु के सिवा अन्य किसी नामकी उपलब्धि नहीं होती, किन्तु सर्वसाधु कोई नाम नहीं होता । अगर 'शुभगति' के स्थान पर 'शुभयति' पाठ मान लिया जाए तो मामला सब साफ हो सकता है । शुभयति का अर्थ होगा शुभचन्द्र भट्टारक तब अन्तिम चरण का अर्थ होगा—'ऐसे शुभचन्द्र मुनि १. ध्यानस्तव पृ० २२-२३ श्लोक ९९-१०. वीर सेवा मन्दिर २०. ध्यानस्तव प्रस्ता• पृ० ३५-३६ ( भारतीय ज्ञानपीठ ) ३. तत्त्वार्थ वृत्ति प्रस्ता. पृ०४७-४८, ध्यानशतक तथा ध्यानस्तव प्रस्ता. पृ० ७५ (वीर सेवा मंदिर)

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